स्कूल की आख़िरी घण्टी और बाउंड्री वॉल के बाहर की दुनिया
इस लेख में लेखक बता रहे हैं कि स्कूल के बाहर बच्चों का जीवन कैसा होता है और क्या स्कूल में सीखी बातें असल ज़िंदगी से जुड़ती हैं। साथ ही, वे 'मेरा गाँव मेरी दुनिया' पहल के ज़रिए यह दिखा रहे हैं कि कैसे बच्चे और युवा अपने समुदाय से जुड़कर गाँव के विकास में भाग ले सकते हैं।

क्या बच्चों की स्कूल के भीतर की दुनिया और बाहर की दुनिया के बीच कोई जुड़ाव होता है? अगर नहीं तो क्यों नहीं और इसके लिए किस तरह की पहल की जा सकती है? यह लेख ऐसी ही एक समुदाय-केन्द्रित पहल ‘मेरा गाँव मेरी दुनिया’ के ज़रिए बच्चों और युवाओं को उनके समुदाय से जोड़ने के प्रयास और इसके सकारात्मक नतीजों पर केन्द्रित है।
बचपन में जब हम गाँव में स्कूल में पढ़ते थे, तब से लेकर अब तक स्कूलों में एक चीज़ जो नहीं बदली है, वो है स्कूल की घण्टी। पहली घण्टी बजते ही बच्चे खेल के मैदान से धीरे-धीरे असेम्बली की लाइन में लगने लगते हैं। कई बच्चे शिक्षक के आने का इन्तज़ार करते दिखते हैं। जैसे-जैसे उन्हें भूख लगती है, वे स्कूल की आधी छुट्टी की घण्टी का इन्तज़ार करने लगते हैं। वहीं आख़िरी घण्टी बजते ही कुछ बच्चे भागते हुए, कुछ टीचर से बतियाते हुए, कुछ क्लास में ताला लगाते हुए तो कुछ अपनी साइकिल को निकालते नज़र आते हैं। सोचने की बात यह है कि स्कूल से लौटने के बाद का उनका जीवन कैसा होता है और क्या स्कूल के भीतर और बाहर की उनकी दुनियाओं के बीच कोई जुड़ाव होता है? क्या स्कूल के ख़त्म हो जाने के बाद की बच्चों की ज़िन्दगी इस पर निर्भर करती है कि स्कूल के अन्दर क्या हुआ? बच्चे स्कूल के घण्टों के दौरान जो जीवन जीते हैं क्या वह जीवन स्कूल के बाद गली, मोहल्ले, घर में जिए जाने वाले उनके जीवन से जुड़ा होता है? अगर इस सवाल का जवाब नहीं है तो इससे यह पता चलता है कि हम शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्यों में से बहुतों को पूरा कर पाने में असमर्थ रहे हैं।
घर और स्कूल — दो अलग दुनियाएँ
अपने काम के शुरुआती दिनों में जब सरकारी स्कूलों में मेरा जाना होता था तो शिक्षकों की एक शिकायत यह रहती थी कि यहाँ हम कितना भी करा लें, घर जाकर बच्चे वापस वैसे ही हो जाते हैं, वहीं दूसरी ओर अभिभावकों का यह कहना होता था कि घर पर तो बिल्कुल मस्ती नहीं करता, लेकिन स्कूल में लड़ाई-झगड़ा करता रहता है। इससे पता चलता है कि बच्चों के लिए घर और स्कूल दो अलग दुनियाएँ बन गई हैं और इन दोनों दुनियाओं में वे अलग होते हैं।
देखा जाए तो स्कूल को बाहर की दुनिया से अलग करने में बाउंड्री वॉल की अहम भूमिका होती है। स्कूलों में बाउंड्री वॉल की ज़रूरत क्यों है इसे लेकर बहस काफी समय से चल रही है। इस सन्दर्भ में सुरक्षा के पहलू को छोड़ दें तो इसके होने की वजह क्या है और क्या कोई चारदीवारी स्कूल को गाँव से अलग कर सकती है? आख़िर ऐसा क्या है पाँच फीट की एक दीवार में जिसके इस पार और उस पार दो अलग दुनियाएँ बन जाती हैं? बेशक सीखने की शुरुआत एक सेफ़ स्पेस में होनी चाहिए। लेकिन सीखने की असल क्षमता तब विकसित होती है जब सीखे हुए को वास्तविक दुनिया में आज़माया जाए। इससे सीखने का स्तर और बेहतर होता है। स्कूलों को सेफ़ स्पेस बनाकर गाँवों को, समाज को, देश को बदलने का जो इरादा था, वह अधिकतर मामलों में स्कूल की पाँच फीट की दीवार को नहीं लाँघ पाया। इसके उलट स्कूलों में कुछ ऐसी चीजें अपने पाँव पसार कर बैठ गईं जो गाँवों के वांछित समाज के लिए गैर-ज़रूरी हैं। इसलिए हमारे लिए स्कूल के बाहर की दुनिया को समझना और दोनों दुनियाओं के बीच जुड़ाव बनाना बेहद ज़रूरी हो जाता है।

फोटो साभार: मेरा गाँव मेरी दुनिया
‘मेरा गाँव मेरी दुनिया’ पहल
स्कूल और गाँव के बीच की दूरी को पाटने के लिए मध्य प्रदेश के उज्जैन ज़िले के नागदा विकासखण्ड के गाँवों में‘मेरा गाँव मेरी दुनिया’ पहल शुरू की गई। इसका उद्देश्य बच्चों और युवाओं को उनके समुदाय से गहराई से जोड़ना है और ऐसे युवा तैयार करना है जो अपने गाँव की शिक्षा व्यवस्था में बदलाव ला सकें और अपने गाँव को बेहतर बनाने में योगदान दे सकें। इसके लिए यह ज़रूरी है कि उनकी शिक्षा की समझ, जिसमें पढ़ाने के शिक्षणशास्त्र से लेकर ज़मीनी स्तर पर नवाचार करना और खुद को लगातार बेहतर करना शामिल है, बेहतर हो। ऐसे में यह समझना भी कार्यनीति का हिस्सा होता है कि स्कूल के बाद का उनका समय किस तरीक़े से बीतता है, घर पर वे किन परिस्थितियों में रहते हैं और उन परिस्थितियों से कैसे सामंजस्य स्थापित करते हैं।
उनके जीवन से जुड़े विविध पहलुओं पर उनके विचारों को समझने के लिए उन्हें एक तयशुदा टेम्पलेट में अपने विचार लिखने को कहा जाता है। अमूमन स्कूल के बाद, कुछ पल आराम के बाद वे अपनी कक्षा, शिक्षकों से बातचीत, स्कूलों में बदलाव, पैरेंट्स में बदलाव इत्यादि पहलुओं पर चिन्तन कर इसमें अपने विचारों को लिखते हैं। यह टेम्पलेट उनके विचारों को, सुझावों को, उनकी कोशिशों को और उनके प्रयासों की वजह से हुए बदलावों को बारीकी से समझने और सहेजने का अवसर देता है।
इस पहल के तहत अपने गाँव को समझने के लिए उन्हें मोहल्ले-मोहल्ले या ज़रूरत के हिसाब से परिवारों से मिलना होता है। इससे उन्हें अपने गाँव को समझने, लोगों से जुड़ने, उनकी चाहत, उनकी आकांक्षाओं को समझने का मौका मिलता है। समुदाय के लोगों से अनौपचारिक बातें उन्हें अपने गाँव की संस्कृति और उनके घर के माहौल पर उस संस्कृति के असर को समझने में सहयोग करती हैं। यही वे मौके होते हैं, जहाँ से बदलाव के बीज खोजे जाते हैं और फिर उन्हें अलग-अलग स्तर पर रोपने की तैयारी होती है।

फोटो साभार: मेरा गाँव मेरी दुनिया
आपस में सीखने के लिए पियर मित्र
हमें युवाओं के साथ काम करने का जो एक तरीक़ा समझ आया, वह यह है कि क्षमता विकास हमेशा केवल संस्था के ज़रिए न होकर किसी और तरीके से भी किया जाना चाहिए। कोई एक प्रोग्राम मैनेजर होने से ज़्यादा बेहतर है ऐसे समूह तैयार करना जो आपस में सीख सकें। ‘मेरा गाँव मेरी दुनिया’ के तहत आपस में सीखने की प्रक्रिया दो तरीक़े से होती है — एक तरीक़ा है ‘पियर मित्र’ का जिसमें वे युवा लीडर जिनको थोड़ा अनुभव हो गया है, अपने नए साथी के साथ संवाद करते हैं। ये संवाद अनौपचारिक और किसी भी विषय पर हो सकते हैं। दूसरा तरीक़ा यह है कि पाँच-पाँच के समूह में साप्ताहिक समूह मीटिंग आयोजित की जाती है। इसमें युवा एक चुने हुए विषय पर आपस में चर्चा करते हैं और उस विषय से जुड़ी समस्या के साथ-साथ उसके समाधान पर अपनी समझ विकसित करते हैं।

फोटो साभार: मेरा गाँव मेरी दुनिया
सोशल एक्शन प्रोजेक्ट
इसके अलावा, हमारे इंटरवेंशन का एक भाग ‘सोशल एक्शन प्रोजेक्ट’ है। इस प्रोजेक्ट को युवा अपने अभिभावक के साथ मिलकर करते हैं या इसे अभिभावक आंशिक रूप से फ़ंड करते हैं। युवा स्कूल के बाद अभिभावकों के साथ मिलकर प्रोजेक्ट की निगरानी और उसका नेतृत्व करते हैं। इसी तरह, युवाओं को एक शॉर्ट टर्म लीडरशिप प्रोजेक्ट या अल्पकालिक नेतृत्व परियोजना करनी होती है। इसमें वे किसी प्रोजेक्ट को स्वयं संचालित करते हैं — उसकी फ़ंडिंग, रिपोर्टिंग से लेकर ज़मीनी स्तर पर उसके कार्यान्वयन तक।
उदाहरण के लिए, हमारी एक युवा लीडर सोना को लगा कि उसके गाँव में शराब और नशे की वजह से शिक्षा पर काफ़ी असर पड़ रहा है, तो उसने एक प्रोजेक्ट ‘नशे और शराब के इंटरसेक्शन’ पर किया। इसके लिए उसने न केवल विशेषज्ञों से ट्रेनिंग ली, बल्कि एक फ़ेलोशिप के माध्यम से सीड फंडिंग भी जुटाई। इसी तरह, युवाओं ने संविधान, नागरिक सहभागिता, पर्यावरण आदि कई विषयों पर परियोजनाओं का नेतृत्व किया ताकि उनकी क्षमता एक लीडर के रूप में विकसित हो सके।

फोटो साभार: मेरा गाँव मेरी दुनिया
पियर टीचिंग और किताबें पढ़ना
शिक्षण भी इस पहल का अहम हिस्सा है। इसके तहत युवा छोटे बच्चों को पियर टीचिंग के माध्यम से पढ़ाते हैं या उनके साथ विभिन्न तरह के खेल खेलते हैं। ‘मेरा गाँव मेरी दुनिया’ की कक्षाओं के होमवर्क ऐसे होते हैं जिनमें बच्चों के पास गाँव की दुनिया और परिवार से जुड़ने के अवसर होते हैं। जैसे — अपनी दादी और उनके हमउम्र लोगों के समय के गाँव के बारे में पता करना, कौन से बच्चे खेल के मैदान में कभी नहीं दिखाई देते — उनकी गिनती, नाम और प्रतिशत क्या है, या कितने प्रकार के पेड़ स्कूल से घर तक के रास्ते में न नज़र आते हैं, घर पर सवेरे से शाम तक क्या-क्या होता है, घर पर कब कौन से खाने का सामान बना — उसकी सूची और डेटा बनाना इत्यादि।
उपरोक्त गतिविधियों में भागीदारी के साथ-साथ हमारे कई युवाओं ने कविताएँ, कहानियाँ और टाइम मैनेजमेंट, दर्शनशास्त्र, शिक्षा जैसे अलग-अलग विषयों पर किताबें पढ़ना शुरू किया है। पढ़ने की आदत से विभिन्न विषयों पर न केवल उनकी समझ बढ़ती है, बल्कि वे एक बेहतर और संवेदनशील मनुष्य भी बनते हैं।
कुल मिलाकर, पाँचवीं कक्षा से ऊपर के हमारे सभी विद्यार्थी अपने स्कूल और गाँव को बेहतर करने में किसी न किसी तरह से योगदान देते हैं, जिसे हम सामाजिक पूँजी कहते हैं। इस सामाजिक पूँजी की निगरानी हम सोशल कैपिटल क्रेडिट सिस्टम के ज़रिए करते हैं। बच्चे इन पॉइंट्स के बदले में स्पोर्ट्स किट से लेकर किताबें तक मँगा सकते हैं। इस तरह ‘मेरा गाँव मेरी दुनिया’ के गाँवों में हम स्कूल की आख़िरी घण्टी से स्कूल की पहली घण्टी के बीच का सफ़र तय करते हैं।


No approved comments yet. Be the first to comment!