असफलता
In her piece, Jo Chopra-McGowan reflects on failure from a ground that joins together the personal, the professional and the philosophical.
जो चोपड़ा मैकगोवन सफलता क्या होती है इससे हम सभी परिचित हैं। अयह ज़िन्दगी की एक ऐसी सच्चाई है, जिससे कोई बच नहीं सकता। हर कोई असफल होता है। कुछ लोग सार्वजनिक तौर पर, असाधारण रूप से बार-बार असफल होते हैं। दूसरी तरफ़ कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो अपनी असफलताओं पर पर्दा डाल पाते हैं। वे जीवन में ऐसी सहजता से आगे बढ़ते हुए प्रतीत होते हैं, मानो उनके छूने पर मिट्टी भी सोना हो जा रही हो। हममें से अधिकांश लोग अपने जीवन में सार्वजनिक और छिपी हुई, दोनों तरह की असफलताओं का अनुभव करते हैं।
ऐसे साहसी लोगों के लिए, जो न केवल खुद की, बल्कि दुनिया की समस्याओं को भी सुलझाने का बीड़ा उठाने को तैयार होते हैं, असफलता एक कुत्ते के पट्टे की तरह होती है, जो उन्हें उनकी हद में रहने को मजबूर कर देती है। हम दुनिया की भूख की समस्या, जलवायु परिवर्तन और महिलाओं पर होनेवाली हिसा जैसी समस्याओं को सुलझाने की दिशा में धीमी गति से प्रगति कर ही रहे होते हैं कि अचानक हमें एक अप्रत्याशित चुनौती का सामना करना पड़ता है। हमारा अनुदान का प्रस्ताव अस्वीकृत हो जाता है। हमारा निगरानी और मूल्याकन निदेशक किसी प्रतिद्वंद्वी संस्था के साथ काम करने के लिए इस्तीफा दे देता है। हमारा एफसीआरए रद्द हो जाता है।
जी हाँ, हमारा एफसीआरए रह हो गया था। ऐसा किस वजह से हुआ यह हम जानते हैं और आप भी अंदाजा लगा सकते हैं, लेकिन यहाँ मैं यह बताने के लिए नहीं हूँ। इसके बजाए आज मैं असफलता और हम इसका सामना कैसे करते हैं, इस पर बात करना चाहती हूँ। भारत के किसी भी गैर सरकारी संगठन के लिए विदेशी फंड हासिल करने का अधिकार खो देने से बड़ी असफलता भी कोई हो सकती है?
हाल ही में, आइडीआर (“India Development Review”) को दिए गए एक साक्षात्कार में अमित चन्द्रा ने बताया कि आज वे जो कुछ भी हैं अपनी असफलताओं की बदौलत हैं। इसी तरह, हमारे एफसीआरए लाइसेंस को बनाए रखने में हमें मिली असफलता (या यूँ कहे की जो उस समय असफलता लग रही थी) भी हमारे लिए परिवर्तनकारी थी।
एक विदेशी होने के नाते, यह अनुभव इतना ज्यादा व्यक्तिगत और विक्षुब्ध कर देने वाला लग रहा था कि एक पल को मैं थम सी गई। मैंने पिछले 30 सालों में जो कुछ भी किया था, मैं उस पर सवाल उठाने लगी, यहाँ तक कि अपने पड़ोसियों को भी शक की निगाह से देखने लगी और सोचने लगी कि क्या वे मुझे स्वीकार करते हैं या फिर अब अपना सामान पैक करके अपने ‘घर” लौटने का समय आ गया है।
इस स्थिति का सामना करने के लिए मैंने एक सकारात्मक नज़रिया विकसित करने की बहुत कोशिश की। विकसित करने की कोशिश की, यह कहना ही सही होगा क्योंकि यह मुझमें स्वाभाविक रूप से मौजूद नहीं है। यह समझना और स्वीकार करना कि अच्छी और बुरी दोनों तरह की घटनाएँ होती रहेंगी और हमारे नियंत्रण में केवल इतना ही होता है कि हम उन पर कैसे प्रतिक्रिया करें, यह सोच काफ़ी हद तक (बौद्ध धर्म की) जेन विचारधारा से मिलती-जुलती है।
मैंने नज़रिया विकसित करने की कोशिश ज़रूर की, लेकिन असल में यह सब होने की वजह से मैं कई महीनों तक असुरक्षित, शर्मिन्दा, दूसरों द्वारा आलोचना या मूल्यांकन का डर और आहत महसूस करती रही। मुझे अपने सहकर्मियों और जिन परिवारों के बच्चों के लिए हम काम करते हैं, उनकी अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने पर अपराधबोध हुआ।
ऐसा कुछ होने वाला है, इसका पहले से अंदाजा न लगा पाने की वजह से मुझे लगने लगा कि मैं कितनी मूर्ख हूँ। इसके साथ ही आने वाले कल पर इसके असर को सोचकर में भयभीत भी हुई। मेरा स्वाभिमान लगभग खत्म हो गया, मानो मेरी एकमात्र पहचान मेरा काम था। मुझे लगने लगा कि अगर मैं काम में ही असफल हो गई तो फिर और बचा ही क्या?
जब हम अपने जीवन के किसी एक क्षेत्र में असफल होते हैं तो इसका हम पर बहुत गहरा असर पड़ता है। मुझे लगता है कि असफलता के इस पहलू पर, जिस पर हम शायद ही कभी ध्यान देते हैं, ध्यान देना काफ़ी उपयोगी हो सकता है। असफल होने पर हम न केवल अपने हरेक काम पर सन्देह जताने लगते हैं, बल्कि इससे हमारे मन में हमारे अस्तित्व से जुड़े प्रश्न भी पैदा होने लगते है जैसे कि हम कौन है, इस दुनिया में हमारे होने के क्या मायने है आदि। ऐसी स्थिति उन लोगों के लिए खासकर समस्याजनक हो सकती है, जो अपना जीवन किसी उद्देश्य के लिए समर्पित कर देते हैं। हममें से अधिकाश लोगों के लिए हमारा काम हमारा होता है। इसी से हमारी पहचान बनती है। वास्तव में, एक मारा पुन्न व्यक्ति के तौर पर हमारी धारणाओ और मूल्यों व हमारे काम के बीच में गहरा जुड़ाव होता है।
इस मामले में मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूँ कि मेरे परिवार ने और मेरे दोस्तों ने कभी भी मुझे पूरी तरह से मेरी व्यावसायिक उपलब्धियों से जोड़कर नहीं देखा। उन्होंने मेरे काम की सराहना ज़रूर की, लेकिन उन्होंने मेरे व्यक्तित्व और चरित्र व मैं जो हूँ, जैसी हूँ, उसके लिए मुझे अपनाया। यह सब होने के बाद भी उनके और मेरे आपसी सम्बन्धों में कोई बदलाव नहीं आया। उनके अनुसार जो कुछ भी हुआ उसके पीछे की वजह राजनीति और फ़ायदे थे और उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं था।
मेरे परिवार और मेरे मित्रों ने मुझ पर, मेरी उपयोगिता और मेरी ईमानदारी पर किसी भी तरह का सन्देह जताए बिना, मेरे प्रति अपना प्यार, परवाह, समर्थन और मेरे साथ हुई नाइंसाफ़ी के प्रति आक्रोश खुलकर, बार-बार और सबके सामने जताया। उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के और बिना मुझे मूर्ख घोषित किए मुझसे संवाद किया। मेरी पोती ने मुझसे पूछा, “दादी आपको कैसा महसूस हो रहा है?” और जब भी मैंने अपने पोते से व्हाट्सएप पर बात की तो उसने मुझसे पूछा, “दादी आप आ रही हो क्या?” किसी ने भी, यहाँ तक कि बच्चों ने भी, कभी भी मुझे पीछे हटने या काम बन्द करने की सलाह नहीं दी। उनके इस सहयोग की बदौलत धीरे-धीरे में पहले जैसी हो गई। मैं बेहतर महसूस करने लगी। मैं स्थिति की स्पष्ट समझ हासिल कर पाई। और शायद जीवन में पहली बार इस कैथोलिक महिला को यह समझ आया कि जब भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, “तुमको केवल अपने निर्धारित कर्तव्य का पालन करने का अधिकार है, तुम अपने कार्यों के फल के हकदार नहीं हो” तो इससे उनका क्या तात्पर्य था। और इससे भी बढ़कर वे कहते हैं, “अपने कार्यों के नतीजों का ज़िम्मेदार कभी भी खुद को मत ठहराओ।”
अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से मिले निःस्वार्थ प्रेम और कृष्ण द्वारा प्रदान किए गए ज्ञान से मुझे जो स्पष्टता मिली, उससे एक नया विचार उभराः किसे पता कि यह घटना या जीवन में होनेवाली कोई और घटना अच्छी है या बुरी? इस तरह एक अलग नजरिए से देखने पर, एफसीआरए की अनुमति न मिलने की घटना कम भयभीत करनेवाली, कम प्रबल प्रतीत हुई। और वास्तव में, जब मैं इसे असलफता न मानकर सिर्फ एक तथ्य मानने लगी, तो मैं इसके बारे में और ज्यादा स्पष्टता से सोच पाई। मुझे एहंसास हुआ कि सफलताएँ और असफलताएँ दोनों मुख्य तौर पर तथ्य हैं, इनके पीछे कई घटनाएँ जिम्मेदार होती हैं, उन घटनाओं में हमारा किरदार बहुत छोटा होता है। यह समझना हमारे लिए बहुत मददगार होता है।
अब इस घटना को एक साल हो चुके हैं। यह सच है कि हमारे द्वारा बड़ी ही कठिनाई से इकट्ठा किए गए फंड्स का कुछ हिस्सा अभी भी हमारे प्रतिबन्धित एफसीआरए खाते में मौजूद है, लेकिन हमने अपने भारतीय मूल के नए-नए विविध पृष्ठभूमियों वाले डोनर्स से पिछले साल की तुलना में तीन गुना ज्यादा फंड्स इकट्ठा किए। भले ही हमें फंड्स के वैसे संकट का सामना नहीं करना पड़ा, जैसा हमें भय था, लेकिन फिर भी हमें हमेशा सतर्क रहना चाहिए। सच्चाई और ईमानदारी वाले काम के लिए डोनर्स भी मिल ही जाते हैं। हमारा काम अभी बाकी है। बस काम करते रहिए।
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