शिक्षा व कोरोना वैश्विक महामारी सेमिली सीख
Hriday Kant Dewan’s article tries to foreground the learnings from the interventions during the COVID-19 shutdown period that we can use after schools reopen.
कोरोना वैश्विक महामारी ने करीब-करीब सभी लोगों को को परेशान किया है, परन्तु कुछ लोगों को अन्य की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही परेशान किया है। इसने अलग-अलग तबकों के लोगों के सामने अलग-अलग तरह की चुनौतियाँ पेश कीं और सभी को उनके आलोक में अपने जीवन को ढालना पड़ा ।
इनमें से प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों के सामने आई चुनौतियाँ भयावह हैं और उनके जीवन पर पड़े प्रभाव का आकलन करना भी अभी बहुत मुश्किल है। इसके अलावा स्वास्थ्य कर्मियों और उनके परिवारों के जीवन पर भी बहुत असर हुआ ।
एक तरफ तो उनके काम को पहचान और सराहना मिली वहीं कुछ छिटपुट घटनाओं में मरीजों के परिजनों ने स्वास्थ्य कर्मियों के साथ बदसलूकी की। इक्के-दुक्के स्वास्थ्य कर्मियों का व्यवहार इस आपदा में भी संकीर्ण निजी स्वार्थ का’ रहा । धीरे- धीरे ही सही सभी परेशानियों से अब कुछ छुटकारा मिला है और स्वास्थ्य कर्मियों सहित अन्य अनेकों लोगों की जिन्दगी कुछ ढर्रे पर आई है।
शिक्षकों ने साथियों से ही नहीं, प्रशिक्षकों से भी सीखा और वेबिनार व ऑनलाइन प्रशिक्षण में भागीदारी का भी प्रयास किया ।
कोरोना के दौरान समाज के एक तबके को ऐसे नुक्सान हुए हैं जिनका असर अभी तक है। यह तबका बच्चों का है। कोरोना ने-हर उम्र के और हर पृष्ठभूमि के बच्चों पर असर डाला है। वर्तमान में हमारे सामने सवाल यह भी है कि बच्चों को हुए इस नुक्सान की भरपाई कैसे होगी और इसकी भरपाई करने के लिए जो तरीके सुझाए गए हैं, क्या वे सभी या उनमें से कोई भी कारगर है? क्या वे कुछ भी सकारात्मक प्रभाव डाल पाएँगे?
इस पूरी अवधि में बच्चों ने दोस्तों के साथ, अपने वृहद परिवार के साथ, अपने शिक्षकों के साथ और अन्य अनेकों लोगों के साथ अन्तः क्रिया के बहुत से मौके गँवाए हैं। वें स्कूल नहीं गए है यह वो स्पष्ट ही है किन्तु उनमें से अधिकांश ने इस दौरान नई तो क्या कोई पुरानी पुस्तक भी नहीं देखी है, किसी कॉपी अथवा स्लेट पर कुछ लिखा नहीं है, कोई चित्र नहीं बनाया है, दोस्तों के साथ बातचीत नहीं की है और खेल नहीं खेले हैं। स्वायतत्ता व स्वयं के आनन्द के लिए कुछ कर पाने के जो भी मौके उनके पास थे, उन्होंने वे सब खोए है।
इनमें भी व्यक्तिगत अपवादों को छोड़ दें तो गरीब और कमजोर तबकों के बच्चों और सभी श्रेणियों में लड़कियों ने सबसे ज्यादा नुक्सान उठाए हैं। बहुत से अध्ययन हुए हैं जो इसके पुख्ता प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि बच्चे सभी तरह से घाटे में रहे हैं।
कोरोना के दौरान गरीब बच्चों का पोषण भी काफी हद तक प्रभावित हुआ है क्योंकि स्कूलों के बन्द होने की वजह से बच्चे मिड डे मील से भी वंचित रह गए। यह सच है कि इस दौरान बच्चों के लिए निर्धारित मिड डे मील स्कीम के तहत उन तक पोषण पहुँचाने के कई तरह के प्रयास हुए, किन्तु इनमें से अधिकांश प्रयास अपने लक्ष्य को किसी भी सार्थक हद तक पूरा करने में नाकामयाब रहे है। सूखा राशन देकर भी परिवारों तक पोषण पहुँचाया जा सकता है और परिवारों तक इसका पहुँचना सुनिश्चित करने के लिए एक सक्षम ढाँचा बनाने का प्रयास चल ही रहा है।
कोरोना के दौरान ऑनलाइन माध्यमों से कक्षाएँ संचालित करने के प्रयास किए गए। शिक्षा का ऑनलाइन प्रयास बच्चों और शिक्षकों के बीच सम्पर्क का असन्तोषजनक तरीका रहा है। बच्चों, शिक्षकों और पालकों सभी ने ऑनलाइन शिक्षा की अनुपयुक्तता के बारे में कई महत्त्वपूर्ण अनुभव व विचार रखे हैं। यह अनुभव उन सभी को अनुपयोगी व थका देने वाला लगा है जो इसमें शामिल हो पाए हैं। गरीब परिवारों के लगभग 80-85 फीसदी बच्चे तो इसमें शामिल ही नहीं हो पाए हैं क्योंकि कक्षा में शामिल हो सकने के लिए उनके पास स्मार्टफोन और लैपटॉप व इंटरनेट की पर्याप्त बैंडविड्थ व डाटा की उपलब्धता नहीं है।
इस दौरान हुए अनुभवों से कई सकारात्मक बातें भी सामने आई हैं जिनको नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए व उन्हें और सुदृढ़ किया जाना चाहिए। इनसे उभरी समझ को स्थापित मान्यताओं व रीतियों में बदलाव के लिए इस्तेमाल करना होगा। यदि हम सकारात्मक पहलुओं की बात करें तो इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है इस बात का प्रमाण मिलना कि गरीब परिवार से आने वाले बच्चों के माता-पिता भी अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर चिन्तित हैं।
सरकारी स्कूल के शिक्षकों ने यह महसूस किया कि प्राइवेट और सरकारी सभी प्रकार की शालाओं में पढ़ने वाले बच्चों के माता- पिता ने अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर चिन्ता जताई। उन्होंने अपने बच्चो का सीखना सुनिश्चित करने के लिए जो भी सम्भव था वह करने का प्रयास किया। इसी तरह से माता-पिता यह देख
पाए कि सरकारी स्कूल व उनके शिक्षक भी बच्चों की शिक्षा के प्रति चिन्तित हैं और उनमें से बहुत से शिक्षक अतिरिक्त प्रयास भी करने का तैयार हैं। इनमें ऐसे प्रयास शामिल हैं जो उन्हें बच्चों तक पहुँचने और सीखने में उनकी मदद करने के मौके दें ।
कोरोना के दौरान बहुत से शिक्षकों ने बच्चों की शिक्षा की स्थिति का जायजा लेने के लिए उनके घरों का दौरा किया या फिर फोन के माध्यम से उनके माता-पिता से सम्पर्क किया। इससे दोनों संमूहों (शिक्षक एवं समुदाय) के बीच संवाद हुआ और परस्पर विश्वास भी बना । इस सहयोग, परस्पर विश्वास और संवाद को पुर्नबलित करने की जरूरत है ।
इस सम्बन्ध में पहले भी कई तरह के छिटपुट प्रयास हुए हैं व अलग-अलग प्रयासों में विविध तरीके के ढाँचे उभरे हैं किन्तु कोरोना के इस कठिन समय के अनुभव ने परस्पर अन्तः क्रिया को स्वाभाविक रूप से उत्पन्न किया है। यह सम्भावना बनी है कि बच्चों के लिए घर में भी पढ़ने का समय हो, उनके माता-पिता किसी न किसी तरह सीखने में उनकी मदद करें और स्कूल में सिखाई गई अवधारणाओं का अभ्यास घर पर भी करवाया जा सके ।
पालकों और शिक्षकों के आपसी सामंजस्य से स्कूल में सीखी हुई बातों की निरन्तरता घर पर सुनिश्चित की जा सकती है और इससे बच्चों को सीखने में मदद मिलेगी। सवाल यह है कि इस निरन्तरता को बचपन केन्द्रित व दबाव मुक्त रखने का काम किस प्रकार होगा? इसके लिए यह आवश्यक होगा कि स्कूल और घर दोनों जगह बच्चों पर ध्यान तो दिया जाए किन्तु उनकी क्रीड़ा व स्वायत्तता छीनकर और उन पर अत्यधिक दबाव डालकर नहीं ।
कोरोना के दौरान वर्कशीट का प्रयोग काफी प्रचलित रहा । स्थानीय स्तर पर वर्कशीट बनाकर बच्चों के छोटे समूहों के साथ वर्कशीट आधारित शिक्षण के प्रयास किए गए। इससे शिक्षकों, पालकों और बच्चों ने कुछ हद तक इन वर्कशीट का अर्थ समझा व बच्चों द्वारा सवालों को स्वयं हल करने के मौके बने। ये वर्कशीट मिली-जुली गुणवत्ता की रही हैं। इनके प्रयोग से पूरे शिक्षा ढाँचे में कुछ हद तक यह समझ बनी कि बच्चों को सभी सवालों के जवाब पहले से बता देने की जरूरत नहीं है। सीखने वाले स्वयं सवालों को हल करने का प्रयास कर सकते हैं और समूह में मिलकर भी सवालों को हल कर सकते है। समूह में सीखने को अंग्रेजी में पीयर लर्निंग यानी साथियों के साथ सीखना कहा जाता है।
इस दौरान शिक्षक और माता-पिता संमूह में सीखने के फायदे समझ सकें। इन दोनों ही को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। यह सम्भव है कि सभी वर्कशीट अच्छी न बन पाई हो, यह भी सम्भावना है कि उनमें से कई में जानकारी का दोहराव ही हो.
किन्तु यह स्थानीय स्तर पर वर्कशीट बनाने की शुरुआत है । पहली बार ऐसा हुआ कि वर्कशीट अथवा पाठ राष्ट्रीय व राज्य • स्तर पर बना कर निर्धारित रूप में नहीं दिए गए। सम्पूर्ण तन्त्र इस बात के प्रति सचेत था कि इस प्रक्रिया में वह अलग-अलग कक्षाओं व अलग-अलग स्तर के बच्चों के मिश्रित समूह के साथ अन्तःक्रिया कर रहा है इसलिए ये वर्कशीट विशेष कक्षाओं के विशेष पाठों को ध्यान में रखकर नहीं बनाई गई।
इससे एक लाभ यह भी हुआ कि बच्चों को पहली बार बगैर भय के स्व मूल्यांकन का मौका मिला। इस प्रक्रिया में वे स्वयं अपनी गल्तियाँ खोजने व उन्हें सुधारने के प्रयास कर पाए । एक प्रकार से यह एनसीएफ 2005 (National Curriculum Framework, 2005) की एकीकृत दृष्टि व एनईपी, 2020 (New Education Policy, 2020) की बुनियादी भाषायी व गणितीय क्षमता पर जोर की माँग को पूरा करने का व भयरहित आकलन के प्रयास की ओर एक छोटा कदम था ।
इस दौरान स्कूलों के बन्द होने के कारण मोहल्लों में कुछ जगह बनी, बच्चों के कुछ समूह बने जो साथ बैठकर कार्य करते थे । इनमें से कई जगहें लोगों की व्यक्तिगत जगहें थी पर कई जगह सामुदायिक स्थलो का भी इस्तेमाल किया गया। इस अनुभव ने समुदाय को ऐसी जगह उपलब्ध करवाने की सम्भावना के प्रति भी चेताया। कई जगह तो इस दौरान छोटे-छोटे पुस्तकालय भी बनने लगे। स्कूलो के पूरी तरह चालू हो जाने के बांद भी इन सबको जिन्दा रखना व आगे बढ़ाना उपयोगी होगा।
महामारी के दौरान शिक्षकों का • टैक्नोलॉजी के प्रति रवैया भी कुछ हद तक बदला । जो लोग इससे घबराते थे अथवा कुछ अन्य कारणों से इससे दूर रहते थे, उन्होंने मजबूरी में इसका उपयोग किया ।
अब तक की बातों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि इस दौरान सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के बारे में जो समझ बनी उसे स्कूल में भी जारी रखने की जरूरत है। इन पहलुओं में समूह कार्य व साथियों के साथ सीखना, दबावमुक्त, स्व आकलन, बुनियादी क्षमता केन्द्रित वर्कशीट, स्व अध्ययन में शिक्षकों व पालकों की मदद व प्रोत्साहन, अपनी गति से सीखना, स्वयं करने का प्रयास आदि बहुत से सकारात्मक पहलू शामिल हैं। इसके साथ-साथ अनेक जगहों पर शिक्षकों व पालकों के बीच पैदा हुआ परस्पर विश्वास व सहयोग भी बहुत उपयोगी सीख है। इससे कुछ ऐसे पहलू भी सामने आए
जिन पर आमतौर पर हमारा ध्यान नहीं जाता। उदाहरण के लिए जब बच्चों और वयस्कों के बीच संवाद होता है या जब बच्चे साथियो के साथ खेलते हैं, संवाद करते हैं और सहयोग करते हैं तो उनकी भावनात्मक आवश्यकताएँ भी पूरी होती हैं, इससे यह समझ बनी कि हर तरह की अन्तःक्रिया महत्त्वपूर्ण होती है। इसके साथ-साथ स्कूल व शिक्षक बच्चों के जीवन के ढर्रे से भी कुछ हद तक रूबरू हो पाए हैं। इस सबको स्कूल खुलने के बाद और ज्यादा सुदृढ़ करना होगा और स्कूल के ढाँचे व दिनचर्या में भी शामिल करना होगा । यह स्कूल की संरचना व कार्य पद्धति दोनों को बदलने की माँग करेगा अर्थात स्कूल व प्रशासन के रिश्ते, शिक्षक की एजेंसी व स्वायत्तता सभी के बारे में एक नए सिरे से सोचना होगा ।
इससे एक लाभ यह भी हुआ कि बच्चों को पहली बार बगैर भय के स्व मल्यांकन का मौका मिला । इस प्रक्रिया में वे स्वयं अपनी गल्तियाँ खोजने व उन्हें सुधारने के प्रयास कर पाए ।
महामारी के दौरान शिक्षकों का टैक्नोलॉजी के प्रति रवैया भी कुछ हद तक बदला । जो लोग इससे घबराते थे अथवा कुछ अन्य कारणों से इससे दूर रहते थे, उन्होंने मजबूरी में इसका उपयोग किया। इस दौरान अधिकांश ने यह भी महसूस किया कि विवेकशील ढंग से टैक्नोलॉजी का थोड़ा बहुत व सोचा- समझा उपयोग सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में कुछ हद तक मदद कर सकता है।
उदाहरण के लिए जिन विद्यार्थियों के पास संसाधन (स्मार्टफोन या सामान्य फोन) उपलब्ध थे उनके लिए शिक्षकों से अपने विचार, सवाल, अनुभव साझा करना कुछ हद तक सम्भव बना । हालाँकि जमीन पर यह कितना हो पाया यह स्पष्ट नहीं है। यह भी सही है कि इस दौरान कई जगहों पर बच्चों की ऑनलाइन कक्षाएँ करवाने के गम्भीर प्रयास किए गए किन्तु इन ऑनलाइन कक्षाओं में एक बड़ी अड़चन कक्षा के समय स्मार्टफोन या लैपटॉप व बैंडविड्थ की उपलब्धता थी, इनके बिना सीखने वाले कंक्षा में भागीदारी नहीं कर सकते थे। इनके अभाव में बहुत से बच्चों के लिए रिकॉर्डेड सामग्री तक पहुँचना व उसका इस्तेमाल कर पाना भी सरल नहीं था ।
शिक्षकों के साथ बातचीत भी उन बच्चों के लिए ही सम्भव हो सकती थी जिन्हे दिन में किसी उपयुक्त समय पर स्मार्टफोन या लैपटॉप उपलब्ध हो । कुल मिलाकर संसाधनों के अभाव में जिन बच्चो को सबसे ज्यादा जरूरत थी वही ऑनलाइन कक्षाओ और शिक्षक से सम्पर्क की प्रक्रियाओ से महरूम रह गए ।
टैक्नोलॉजी के कुछ फायदे भी नजर आए। व्हाट्सएप और फोन की बदौलत शिक्षक और पालक का एक दूसरे के सम्पर्क में रह पाए और बच्चों की शिक्षा के बारे में चर्चा कर सके। जाहिर है व्हाट्सएप वाले फोन की तुलना में एक सामान्य फोन में काफी कम सम्भावनाएँ होती हैं किन्तु महामारी ने कक्षा व स्कूल की चारदीवारी के बाहर संवाद के जो माध्यम खोल दिए हैं, इनका सार्थक उपयोग शिक्षा की गुणवत्ता में बहुत बड़ा योगदान दे सकता है।
इन माध्यमों की मदद से बच्चों के सीखने-सिखाने को लेकर इसी प्रकार के संवाद शिक्षकों के बीच भी शुरू हुए हैं। इस परेशानी के समय शिक्षकों ने स्वयं भी संसाधनों को इधर-उधर से ढूँढ़कर इस्तेमाल करने का प्रयास किया और साथ ही अन्य शिक्षकों के अनुभवों व उनके द्वारा इस्तेमाल किए तरीकों को भी जानने व समझने का प्रयास किया। शिक्षकों ने साथियों से ही नहीं, प्रशिक्षकों से भी सीखा और वेबिनार व ऑनलाइन प्रशिक्षण में भागीदारी का भी प्रयास किया।
हालाँकि प्रशिक्षकों व शिक्षकों के बीच और शिक्षकों में आपस में अन्तःक्रिया होना लाजमी है व उसे जल्द से जल्द शुरू करने * की आवश्यकता है, फिर भी महामारी के दौरान हुए प्रयासों ने यह दिखाया कि ऑनलाइन प्रशिक्षण के कई लाभ भी हो सकते हैं। वेबिनार की बदौलत शिक्षक कई ऐसे लोगों से रूबरू हो पाए जिन तक उनका वैसे पहुँचना मुश्किल होता। इसमें प्रशिक्षक, शिक्षा विशेषज्ञ व अन्य जगह पढ़ा रहे शिक्षक शामिल हैं। इस पूरे अनुभव ने एक ओर तो शिक्षा में टैक्नोलॉजी के उपयोग की सीमाएँ हमारे सामने रखीं पर दूसरी ओर उसके उपयोग की सार्थक सम्भावनाएँ भी रखीं। कई शिक्षकों में स्वयं खोजने व जानने की इच्छा जागी व उनका टैक्नोलॉजी के साथ ज्यादा यथार्थपूर्ण सम्बन्ध बना। इस प्रकार उनका डर भी कम हुआ और टैक्नोलॉजी की चकाचौंध भी ।
कोरोना के दौरान गरीब बच्चों का पोषण भी काफी हद तक प्रभावित हआ है क्योंकि स्कूलों के बन्द होने की वजह से बच्चे मिड डे मील से भी वंचित रह गए।
जब हम आगे के समय के बारे में सोचते हैं तो यह समझ आता है कि आने वाले समय में हमें बच्चों, उनके बचपन, उनके विकास के सभी पहलुओं और उनकी खुशी को नजर में रखना होगा । इसके लिए हमें इस वैश्विक महामारी के अनुभव, इसमें हुए प्रयासों, अलग-अलग तरह के लोगों की भागीदारी, उनके योगदान व उनके द्वारा ईजाद किए गए तरीकों को ध्यान में रखकर ही आगे की योजना बनानी होगी ।
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