शिक्षा में समदुाय की भागीदारी
In ‘Sahodaya: Ways of Sustainable Living and Learning,’ Rekha Kumari, Himanshi and Anil Kumar share their experiences of working with, and building, communities as salient aspects of the educational alternatives they are trying to co-create in a remote part of Bihar.
इस लेख में ‘समुदाय’ से हमारा आशय बच्चों के पालकों और ऐसे लोगों से है जो बच्चों के आस-पास के परिवेश में निवास करते हैं और उनकी शिक्षा को लेकर चिन्तित होते हैं। इसमें हम हाशिए के बच्चों की शिक्षा में उनके समुदाय की भूमिका और भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए हमारे द्वारा किए गए प्रयासों पर चर्चा करेंगे। हाशिए के समुदायों से हमारा तात्पर्य दलितों, आदिवासियों, विमुक्त समुदायों और अन्य सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से पिछड़े समुदायों से है।
हाशिए के बच्चों (marginalized children) की शिक्षा में उनके समुदाय की भूमिका पर ज्यादा चर्चा नहीं होती क्योंकि उन्हें मुख्यधारा की शिक्षा के अनुसार ‘पढ़ा-लिखा’ नहीं माना जाता है। लेकिन इस तबके के बच्चों की शिक्षा से सरोकार रखनेवाले हम जैसे लोगों के लिए यह समझना जरूरी है कि इन बच्चों के भविष्य की चिन्ता सबसे ज्यादा उनके पालक ही करते हैं और वे यह सुनिश्चित करने के लिए जी-जान लगा देते हैं कि उनके बच्चे पढ़ सकें। इसलिए इन बच्चों की शिक्षा में इनके पालकों की भूमिका को एक सकारात्मक नजरिए से देखा जाना चाहिए और पालकों की पृष्ठभूमि को उनके बच्चों की शिक्षा में रुकावट नहीं माना जाना चाहिए।
हाशिए के समुदायों के प्रति मुख्यधारा के स्कूलों का रवैया हम देखते हैं कि हाशिए के समुदायों और स्कूल के बीच के आपसी रिश्ते बराबरी के मूल्य पर आधारित नहीं होते। समुदाय के प्रति स्कूल का रवैया उदासीन और गैर-बराबरी वाला होता है। यदि समुदाय से कोई पालक अपने बच्चों के स्कूल जाते हैं तो उनके साथ भी सम्मानपूर्वक व्यवहार नहीं किया जाता है। समुदाय के लोग शिक्षकों से स्कूल के दैनिक क्रियाकलापों और अपने बच्चों के शैक्षिक स्तर के बारे में भी नहीं पूछ पाते। यही नहीं बच्चे के सीख नहीं पाने, कक्षा का कार्य पूरा न कर पाने अथवा स्कूल नहीं आने के लिए सिर्फ माता-पिता ही दोषी ठहराए जाते हैं और इसके लिए बार-बार उन्हें स्कूल में अपमानित किया जाता है। बच्चे अपने पालकों का अपने सामने अपमान होता देखते हैं जिससे उनका भी आत्मविश्वास कमजोर होता जाता है और वे हीनभावना से ग्रस्त हो जाते हैं। स्कूलों के द्वारा समुदाय और स्कूल के बीच की दूरी को पाटने के कोई प्रयास नहीं किए जाते। इस प्रकार इन समुदायों के लोग अपने बच्चों की शिक्षा में भागीदारी से पूर्णतः उपेक्षित ही रहते हैं। हालाँकि उन्हें स्कूल की व्यवस्थागत प्रक्रियाओं में थोड़ा बहुत शामिल किया जाता है पर यह केवल खानापूर्ति होती है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा 2005, शिक्षा का अधिकार कानून 2009
व राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 जैसे दस्तावेजों में भी इस समस्या को रेखांकित किया गया है और शिक्षा में समुदाय की भागीदारी और कक्षा में स्थानीय संसाधनों के उपयोग का सुझाव दिया गया है।
पाठ्यचर्या-निर्माण व समुदाय
शिक्षा से हम यह अपेक्षा करते हैं कि यह बच्चों को स्वतंत्र अभिव्यक्ति, आलोचनात्मक चिन्तन, वैज्ञानिक सोच व तार्किकता का प्रदर्शन करनेवाले और अपने आसपास की परिस्थितियों पर प्रश्न उठाने वाले एक संवेदनशील इन्सान के तौर पर विकसित करे। इसके साथ ही उनमें अपने समुदाय को लेकर चिन्ता और अपनी संस्कृति, रीति-रिवाजों और अपनी पहचान को लेकर गर्व का भाव विकसित होना चाहिए। बच्चों को ऐसा इन्सान बनाने में पाठ्यचर्या की महती भूमिका होती है और ऐसी पाठ्यचर्या की जरूरत होती है जो उपरोक्त मुद्दों को सम्बोधित करे लेकिन मौजूदा समय में पाठ्यचर्या-निर्माण की प्रक्रिया में समुदाय की कोई भागीदारी नहीं होती। इसके पीछे की मुख्य वजह यह धारणा है कि पाठ्यचर्या-निर्माण विशेष दक्षता रखनेवाले लोगों का काम है और इसे इसी तरह से प्रचारित भी किया जाता है ताकि आम लोगों को इससे अलग-थलग रखा जा सके। इससे धीरे-धीरे आम लोगों में भी यही धारणा बन जाती है कि वे पाठ्यचर्या-निर्माण में सहभागी होने के लायक ही नहीं हैं, वे अज्ञानी हैं, वे खुद को छोटा और हीन समझने लगते हैं। बाहरी लोगों द्वारा तय पाठ्यचर्या को ही महत्त्वपूर्ण और उपयोगी मान लिया जाता है और शिक्षक भी आँख मूँदकर उसका अनुसरण करते हैं। स्कूल में, पाठ्यचर्या-निर्माण में व शिक्षण-प्रक्रिया में समुदाय की कोई दखलन्दाजी नहीं होती है और न ही इसकी स्वीकार्यता होती है।
हाशिए के लोगों का ज्ञान
आखिर ‘ज्ञान’ क्या है और किनके ‘ज्ञान’ को ‘ज्ञान’ माना जाता है, यह एक बड़ा सवाल और एक राजनीतिक मसला है। प्राचीन काल में ज्ञान किसे माना जाएगा यह अधिकार सवर्णों के पास सुरक्षित था जबकि वर्तमान में यह उच्च वर्ग और सत्ता पर आसीन लोगों के पास है। ये लोग बाजारवाद के लिए उपयोगी ज्ञान को ही ज्ञान का दर्जा देते हैं और ऐसे ज्ञान को ही पाठ्यचर्या में शामिल करते हैं। यही कारण है कि हाशिए के लोगों के ज्ञान का मुख्यधारा के ज्ञान में कोई स्थान ही नहीं है, उनके ज्ञान को तो कभी ज्ञान का दर्जा ही नहीं मिलता और इसे पिछड़ा व अनुपयोगी कहकर खारिज कर दिया जाता है।
हाशिए के लोगों के ज्ञान का एक समृद्ध इतिहास रहा है। इनके पास ज्ञान व कौशल का असीमित भण्डार है जो इन्होंने अपने जीवन के अनुभवों से सीखा और सहेजा है व अपनी अगली पीढ़ी को स्थानान्तरित किया है। कई आदिवासी समुदाय जंगल की बहुत सारी औषधियों के बारे में जानते हैं, जैसे— टूटी हड्डी को जोड़ने के लिए जड़ी, नीम की छाल से त्वचा के रोगों के इलाज की दवा, पुराने बुखार के इलाज के लिए खास बेल से काढ़ा बनाना, आँखों के इलाज की दवा आदि। छोटे बच्चों की पसली चलने पर ये जानवर की सींग का उपयोग करते है, इनके पास खेती का भी विस्तृत ज्ञान मौजूद है, मौसम का अनुमान लगाने के इनके अपने तरीके हैं, ये जल संरक्षण और जमीन को उपजाऊ बनाने के परम्परागत तरीकों, फसल की बुआई के समय का निर्धारण करना जानते हैं। यही नहीं लोहे को पिघलाकर औजार बनाने का हुनर भी इनके पास है। वे गीले चमड़े को उपचारित करना, उसे सुरक्षित रखना और उससे जूते बनाना जानते हैं, चमड़े, घास से मजबूत रस्सी बनाना, छीन्द से झाड़ू बनाना, मिट्टी से घड़ा बनाना, बाँस को कई सालों तक कीड़ों से सुरक्षित रखने के लिए बाँस का बिना रसायन के बहते पानी में परम्परागत तरीके से उपचार करना जानते हैं। वे बाँसों को छीलकर अलग-अलग बर्तन और औजार बनाने का हुनर भी जानते हैं। यह सदियों पुराना ज्ञान इन समुदायों ने खुद के अनुभवों और अभ्यासों से सीखा है और आज तक इसे संरक्षित रखा है।
आज सारी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण को लेकर चिन्ता जाहिर की जा रही है लेकिन यदि हम सचमुच पर्यावरण संरक्षण के कुछ ठोस उपायों को अपनाना चाहते हैं तो हमें आदिवासियों व बहुजन समाज के ज्ञान और उनके जीवन जीने के तरीकों को तवज्जो देनी होगी। यदि हम इस ज्ञान को स्कूलों की पाठ्यचर्या में शामिल करेंगे तो यह बच्चों में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता और उनके व्यवहार में बदलाव लाने में बहुत कारगर हो सकता है। हमें यह समझना होगा कि आज की परिस्थितियों को देखते हुए आदिवासियों का ज्ञान ही मानव संस्कृति और पर्यावरण को बचा पाएगा।
इन समुदायों के पास इतना ज्ञान व कौशल है जिसे यदि हम दर्ज करने बैठेंगे तो कई पन्ने भर जाएँगे। यह विडम्बना ही है कि इनके हुनर व ज्ञान ने मानव सभ्यता के विकास में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है किन्तु इनके इस ज्ञान व हुनर को वह स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। अब यह ज्ञान उपेक्षित और पिछड़ा माना जाता है।
उपरोक्त मुद्दों को ध्यान में रखते हुए हमने मुस्कान द्वारा संचालित स्कूल— ‘जीवन शिक्षा पहल’ और बस्तियों में चल रहे शिक्षण केन्द्रों में समुदाय की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रयास किए हैं। हम अपने इन्हीं अनुभवों को यहाँ पेश कर रहे हैं :
1) समुदाय से कहानियों का संकलन : हमसमुदाय से कहानियों का संकलन करते हैं। इसके लिए हमारे कार्यकर्ता बस्तियों में जाकर वहाँ की महिलाओं व पुरुषों से बात करके कहानियों को एकत्र करते हैं। इन कहानियों पर बच्चों से चित्र बनवाकर, इन्हें टाइप करके व इनका प्रिंट लेकर इन्हें कक्षा में पाठ्य सामग्री के रूप में उपयोग किया जाता है।बच्चों द्वारा लिखित व समुदाय से संकलित की गई चुनिन्दा कहानियों को किताब की शक्ल भी दी गई है, जैसे— कामचोर डोकरा, बारिश का एक दिन, धूप और पानी, नया स्वेटर, सुनो कत्थी, मिट्टी, पायल खो गई, बस्ती में चोर, बैल की सवारी, गन्ने का बँटवारा। इसके अलावा समुदाय की मदद से अँग्रेज़ी की कुछ शिक्षण सामग्री भी तैयार की गई है।
2) अनुवाद और शब्दकोष-निर्माण में समुदाय की मदद : हमने अपने अनुभव से जाना कि छोटे बच्चों को मानक भाषा में लिखे हुए पाठ को पढ़ने और समझने में बहुत मुश्किल होती है लेकिन यदि उन्हें उनकी भाषा में लिखी हुई किताबें दी जाएँ तो वे पढ़ने में काफी रुचि दिखाते हैं। अजीत कुमार मोहन्ती अपने लेख ‘बहुभाषी शिक्षा— एक ऐसा सेतु जिसमें अभी वक्त है’ में लिखते हैं “आदिवासी समुदाय भारत की आबादी का 8.2 प्रतिशत हैं और इनमें से 830 लाख से भी ज्यादा अपनी खास (लगभग 159) तरह की भाषाओं का प्रयोग करते हैं। उनकी भाषाओं में बमुश्किल तीन से चार ही ऐसी हैं जो स्कूली शिक्षा में जगह बना पाई हैं और अधिकांश विलुप्त होने की कगार पर हैं।” अतः बच्चों को उनकी मातृभाषा में कहानियाँ उपलब्ध कराने के लिए हमने अलग-अलग प्रकाशकों की कुछ कहानियों का बच्चों की मातृभाषा में अनुवाद करने में समुदाय के वयस्क लोगों और युवाओं की मदद ली। हमने कामचोर डोकरा, सन एंड द रूस्टर, मैं भी, मेंढक का नाश्ता, बीज, द्रौपदी जैसी कहानियों का गोंडी और पारधी भाषा में अनुवाद कर उनका बच्चों के साथ उपयोग किया। बच्चों ने इन कहानियों को बहुत ही रुचि के साथ पढ़ा और अपने घर में जाकर भी ये कहानियाँ सुनाईं।
इसके अलावा समुदाय की मदद से हमने गोंडी और पारधी भाषा के शब्दकोष भी बनाए हैं। इन शब्दकोषों में दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले शब्दों व वाक्यों का संकलन किया गया है जिससे शिक्षकों को शिक्षण में सहायता मिलती है। कई बच्चों को भी अपनी भाषा के शब्दों के अर्थ नहीं पता होते तो वे बच्चे भी इन शब्दकोषों का उपयोग करते हैं। इस तरह के प्रयास समुदाय की भाषा को स्कूल में स्थान देने के साथ-साथ भाषा के संरक्षण में भी मददगार साबित हो सकते हैं।
3) समुदाय की मदद से पाठ्य व शिक्षण सामगी का निर्माण : स्कूल की अजनबी दुनिया मेंबच्चे को ऐसी पाठ्य सामग्री को पढ़ना पड़ता है जिसका उसकी वास्तविक दुनिया से कोई भी वास्ता नहीं होता है। इन अनजान सामग्रियों से जुड़ाव बनाने में बच्चों को बहुत कठिनाइयाँ पेश आती हैं जिससे उनमें पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा होती है। इन्हीं वजहों से कई बच्चे स्कूल छोड़ भी देते हैं किन्तु यदि बच्चों को उनके जीवन, उनकी पहचान,उनकी संस्कृति और उनके रीति-रिवाजों से जुड़ी कहानियाँ और पाठ्य सामग्रियाँ दी जाएँ तो न केवल शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया रोचक बन सकती है बल्कि इससे बच्चों के स्कूल में ठहराव को भी सुनिश्चित किया जा सकता है। हम समुदाय को विभिन्न शैक्षणिक गतिविधियों जैसे शिक्षण-अधिगम सामग्री के निर्माण और कक्षा-शिक्षण में शामिल कर पाठ्यक्रम व कक्षा-शिक्षण को दिलचस्प व समृद्ध बना सकते है। इसी के तहत मुस्कान के स्कूलों व बस्ती में स्थित केन्द्रों में शिक्षण-अधिगम सामग्री का निर्माण करने में और इस बारे में विचार-विमर्श करने में समुदाय और बच्चों दोनों की मदद ली जाती है। शिक्षाविद रमाकान्त अग्निहोत्री ने भी अपने लेख ‘बहुभाषिता— एक कक्षा स्रोत’ में इस बात का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं, “बहुभाषिता के सन्दर्भ में बच्चों के माता-पिता एवं समुदाय विशिष्ट को पाठ्यक्रम के संकलन, पाठ्यसूची तथा शिक्षण संसाधनों के विषय में विचार-विमर्श हेतु आमंत्रित करना एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा।”
4) समुदाय के अनुभवों को कक्षा में स्थान देना : समुदाय के अनुभवों को कक्षा में स्थान देने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए गए हैं :
- हम समुदाय के प्रतिदिन के अनुभवों जैसे कचरा बीनने के दौरान, कबाड़ी की दुकान के, पुलिस के साथ के, बाजार के, कहीं बाहर कमाने के लिए जाने के या उनकी पलायन की यात्राओं के अनुभवों को बच्चों की मातृभाषा में लिखित रूप में संकलित करते हैं। बच्चे भी इन अनुभवों के बारे में खुलकर लिखते हैं या बात करते हैं। इस सामग्री को बच्चों के साथ कहानी के रूप में या फिर सामाजिक अध्ययन की पाठ्यसामग्री के रूप में उपयोग किया जाता है। इससे बच्चे पाठ्यक्रम से जुड़ाव महसूस करते हैं और यह सीखने में बहुत प्रभावी रहता है।
- हमने समुदाय के ऐसे अनुभवों को भी दर्ज किया जो गणित की अवधारणाएँ सीखने मेंमददगार साबित होते हैं।इसके तहतहमनेसमुदाय के लोगों के साथ मिलकर बस्तियों में घर बनाने की प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं जैसे— जगह का माप, जगह के चुनाव के मापदण्ड, घर बनाने के लिए उपयोग में आने वाली सामग्री का अनुमानित व्यय, अनुमानित मजदूरी, घर का नक्शा बनाना, इत्यादि को समझते हुए अभ्यास तैयार किए जिन्हें कक्षा में उपयोग किया जाता है। इस प्रक्रिया में समुदाय ने इस ज्ञान को भी साझा किया कि कम से कम खर्च में घर कैसे बनाए जा सकते हैं और इसके लिए सस्ता और पुराना किन्तु पुनः उपयोग में आ सकने वाला सामान कहाँ से मिल सकता है।
- समुदाय के लोगों की संख्या की समझ को समझने के लिए हमने उनके साथ एक अभ्यास किया। हमने समुदाय के लोगों से पूछा कि ‘संख्या’ सुनने पर उनके मन में क्या विचार आते हैं। हमने पाया कि समुदाय के ज्यादातर सदस्योंके द्वारा दिए गए उदाहरण उनके खुद के कार्यक्षेत्र या गाँव की दूरी से जुड़े थे। कुछ उदाहरण अपराध की धाराओं से तो कुछ दैनिक जीवन में उपयोग की चीजों से जुड़े थे। उदाहरण के लिए 25 बोलने पर लोगों की ओर से 25 आर्म्स एक्ट, 70 रुपए की चप्पल खरीदने और 130 रुपए गाँव जाने का टिकट लगता है जैसे उदाहरण निकलकर आए। इन्हीं को आधार बनाकर इबारती सवाल बनाए गए और हम उन्हें कक्षा में उपयोग करते हैं।
- ब्याज की अवधारणा को समझने के लिए बस्ती के लोगों के साथ शिक्षकों और बच्चों के संवाद को कक्षा में स्थान दिया जाता है। बच्चों के पालक कक्षा में आकर बच्चों को बताते हैं कि बस्ती के लोग किस तरह ब्याज की गणना करते हैं या वे कितने रुपए मासिक ब्याज देते हैं। इससे बच्चे न केवल ब्याज की गणना के तरीके जान पाते हैं बल्कि ब्याज के कुचक्र को भी समझ पाते हैं। बस्तियों में लोग जरूरत पड़ने पर साहूकारों से या किसी समर्थ व्यक्ति से 5% से 10% मासिक दर से ब्याज लेते हैं जो वार्षिक 60% से 120% दर तक पहुँच जाता है जबकि बैंक 12% वार्षिक का ब्याज लेते हैं। कई बार तो बस्तियों के लोग बहुत जरूरत पड़ने पर साहूकार से पैसा ले लेते हैं और शाम तक उन्हें दोगुना पैसा वापस करना पड़ता है। कबाड़ बीनने वाले बच्चे भी अपने अनुभवों को कक्षा में लेकर आते हैं। जैसे— कबाड़ बीनने के दौरान बच्चों व बड़ों को मिलने वाली विभिन्न सामग्रियों को कबाड़ी वाला कितने में खरीदता है। इन अनुभवों से अलग-अलग अवधारणाओं (जोड़, घटा, गुणा, भाग) पर आधारित इबारती व अंक गणित के सवाल बनाकर उनका अभ्यास कराया जाता है फिर बच्चों को अवधारणाओं के अगले स्तर पर लेकर जाया जाता है। उदाहरण के लिए— एक किलो रद्दी पेपर की कीमत 7 रुपए है तो 8 किलो रद्दी पेपर कितने का होगा? या रौशन और जित्तू ने मिलकर 120 रुपए का कबाड़ बेचा तो एक के हिस्से में कितने रुपए आएँगे? यह समझने के लिए कि कौन सी चीजें कबाड़ में महँगी बिकती हैं और कौन सी चीजें सस्ती बिकती हैं कक्षा में कबाड़ में बेची जाने वाली अलग-अलग वस्तुओं की कीमतों का तुलनात्मक अध्यन भी किया जाता है। जैसे— दो किलो लोहे और पाँच किलो पुट्ठे में से कौन सी चीज ज्यादा रुपए में बिकेगी इत्यादि।
- दूरी की अवधारणा को समझने के लिए भी समुदाय के अनुभवों को कक्षा में स्थान दिया जाता है। जैसे— कबाड़ बीनने के लिए निकलते हैं तो दिनभर में कितनी दूर चल पाते हैं? घर से बालवाड़ी कितनी दूर है? बोरी में कितने किलो कबाड़ होगा इसका अनुमान लगाना इत्यादि। नक्शे और पैमाने की अवधारणा को समझने के लिए बच्चों से अपनी बस्ती का नक्शा बनाने और माता-पिता की मदद से घर के क्षेत्रफल और वर्ग फीट की अवधारणा से सम्बन्धित अभ्यास भी किए जाते हैं।
5.) समुदाय के लोगों को स्कूल में आने के मौके देना :समुदाय से महिलाएँ व पुरुष नियमित रूप से कक्षा में आते हैं। वे बच्चों को लोक कथाएँ सुनाते हैं व अपनी यात्राओं के बारे में और अपने जीवन के अन्य अनुभवों के बारे में बताते हैं। समुदाय के लोगों के द्वारा उनका इतिहास, जीवनशैली, संस्कृति को बच्चों के साथ साझा करने की एक गतिविधि कराई जाती है। समुदाय से बुजुर्ग लोग आकर बच्चों को बताते हैं कि पुराने समय में वे लोग काम के लिए कहाँ-कहाँ घूमते थे? वे जंगलों से कौन सी दवाइयाँ उपयोग किया करते थे? उस समय काम की कितनी मजदूरी मिला करती थी? उन्होंने भोपाल को स्थाई तौर पर रहने के लिए क्यों चुना? वे किस तरह के घरों में रहते थे और किस तरह के काम किया करते थे? उनके द्वारा मनाए जानेवाले त्यौहार कौन से थे और वे किन देवी-देवताओं की पूजा किया करते थे? बच्चे अपने बुजुर्गों से सवाल-जवाब करते हैं और इस प्रकार एक रोचक बातचीत के माध्यम से बच्चे अपने समुदाय के संघर्षशील इतिहास व समृद्ध संस्कृति को जान पाते हैं। अपने समुदाय के किसी व्यक्ति के जीवन के बारे में सुनकर व समुदाय का इतिहास जानकर बच्चे काफी खुश होते हैं और अपने अनुभवों के बारे में बताकर पालक भी आत्मविश्वास का अनुभव करते हैं तथा उनमें आत्मसम्मान का भाव भी आता है। बच्चे कोशिश करते हैं कि उनके घर का कोई सदस्य जैसे उनके दादा, जिनसे आमतौर पर उनकी ज्यादा बातचीत नहीं हो पाती, आकर अपने अनुभव बताएँ। इस तरह, यह गतिविधि एक तरफ तो समुदाय की लोक कथाओं को जीवित करने का काम करती है, दूसरी तरफ कहानी सुनाने की परम्परा को भी बढ़ावा देती है जो आज के समय में बिल्कुल ही खत्म हो चुकी है। इस पूरी प्रक्रिया से अभिभावक बच्चों की मौलिक अभिव्यक्ति में मदद कर पाते हैं। बच्चे घरों से कहानियाँ सुनकर आते हैं और कक्षा में उन कहानियों को सुनाते हैं।
6) स्कूल का समुदाय के पास जाना– राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005के अनुसार“यह जरूरी है कि सामाजिक-सांस्कृतिक संसार के अनुभवों को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। समुदाय के पास के किसी अनुभव या ज्ञान को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने या न बनाने को लेकर प्रश्न हो सकते हैं। इसलिए स्कूलों को समुदाय के साथ एक रिश्ता बनाने को लेकर तैयार रहना चाहिए, उनकी आशंकाओं को सुनना चाहिए और उन्हें ऐसे निर्णयों के शैक्षणिक मूल्यों के बारे में समझाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक होगा कि शिक्षकों को पता हो कि क्यों किसी चीज को शामिल किया जाए और किसी को नहीं।”
हम बस्तियों में जाकर समुदाय के लोगों के साथ चर्चाएँ करते हैं ताकि वे व्यापक समाज और मुख्यधारा की शिक्षा में अपनी मौजूदगी को समझ सकें और अपने वंचित रहने के राजनीतिक कारणों को समझ सकें। उनसे इस बारे में भी बात की जाती है कि इस समझ को वे अपने बच्चों के लिए कैसे उपयोग करते हैं, उनके लिए क्या सपने देखते हैं और उन सपनों को पूरा करने के लिए वे किस तरह के प्रयास कर रहे हैं? बच्चों को आगे ले जाने में उन्हें किस तरह की मुश्किलें आ रही हैं? अपने
बच्चों के लिए वे कैसा स्कूल और कैसी शिक्षा चाहते हैं और इसमें समुदाय की क्या भूमिका हो सकती है? इन सभी चर्चाओं से बच्चों के स्कूल का समय निर्धारित करने में, कहानियों का अनुवाद करने में कौन मदद करेगा और स्कूल या कहानियों के मेले में समुदाय की तरफ से कौन कहानी सुनाएगा और कौन सी कहानी सुनाएगा यह सब तय करने में काफी उपयोगी सुझाव मिलते हैं। बच्चों को आगे ले जाने के लिए इस तरह की चर्चाओं में समुदाय की भागीदारी बहुत जरूरी है। समुदाय के साथ मिलकर शिक्षा के उद्देश्यों और मुश्किलों पर चर्चा होनी चाहिए ताकि समुदाय के लोग अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सपने देख सकें और उनके उन सपनों को पूरा करने में स्कूल क्या भूमिका निभा सकते हैं इस बारे में स्कूलों को भी एक मार्गदर्शन प्राप्त हो।
बच्चों की शैक्षणिक प्रगति, उनकी उपस्थिति और अन्य मुद्दों को समुदाय से साझा करने के लिए हमारे स्कूल द्वारा समुदाय के लोगों से नियमित तौर पर बातचीत की जाती है। बच्चों के कक्षा-कार्य और गृह-कार्य, उनकी प्रगति को पालकों के साथ साझा करने से पालक बच्चों की प्रगति देख पाते हैं और बच्चों के अनियमित होने पर उन्हें नियमित स्कूल भेजने के लिए सामुदायिक स्तर पर प्रयास कर पाते हैं।
स्कूल का पालकों के साथ रिश्ता
पालक मुस्कान द्वारा संचालित स्कूल को अपना मानते हैं। यदि उनके घर में कोई मुश्किल होती है तो वे एक दो दिन के लिए स्कूल (हॉस्टल) में रुक जाते हैं। एक तरह से स्कूल उनके लिए एक ऐसी जगह होती है जहाँ आकर उन्हें घर-बार के तनावों से बाहर आने में मदद मिलती है। इस दौरान शिक्षक साथी पालकों का पूरा ख्याल रखते हैं और उनसे बातचीत करके उन्हें हिम्मत देने का काम करते हैं। आम दिनों में भी जब पालक स्कूल में आते हैं तो वे कक्षाओं में जाकर शिक्षकों से बातचीत करते हैं। यदि वे देखना चाहते हैं कि कक्षा में उनके बच्चे कैसे सीख रहे हैं तो वे कक्षा में कुछ देर समय भी बिताते हैं। कई बार बच्चों की माएँ भी कचरा बीनते हुए स्कूल आ जाती हैं, अपना थैला बाहर रखकर पानी पीकर थोड़ा आराम कर लेती हैं, बच्चों से मिल लेती हैं और फिर थैला उठाकर काम पर वापस चली जाती हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समुदाय, शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हो सकता है। इन प्रयासों की वजह से समुदाय के लोग सीखने की प्रक्रिया से खुद को जोड़ पाए हैं। उनके अन्दर आत्मविश्वास बढ़ा है कि वे भी बच्चों के सीखने की प्रक्रिया में योगदान दे पा रहे हैं। इससे समुदाय का अपने बच्चों और शिक्षकों पर विश्वास व भरोसा और भी मजबूत हुआ है। कक्षा में अपनी भाषा का उपयोग होता देख समुदाय के लोग इन प्रयासों की सराहना करते हैं। उनके अन्दर अपनी भाषा, अपने ज्ञान व अपनी संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव भी बढ़ा है। इन अनुभवों के आधार पर हम कह सकते हैं कि समुदाय और शिक्षा वास्तव में एक दूसरे के पूरक होते हैं और इन्हें अलग-अलग नहीं माना जाना चाहिए।
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