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बाल साहित्य के निर्माण में एकलव्य संस्था के अनुभव और अन्तर्दृष्टि

In this interviews with groups working around issues of children’s literature and equity, we bring before you challenges in producing and sharing books and narratives that speak to the diverse childhoods in the country.

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Published On : 3 March 2023
Modified On : 21 November 2024
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एकलव्य फाउण्डेशन मध्य प्रदेश में स्थित गैर-सरकारी ए संस्था है जो पिछले चालीस वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में नवाचार का काम कर रही है। इसके साथ ही यह बाल साहित्य और शिक्षा साहित्य विकसित करने का, हाशियाकूत समुदायों के बच्चों की आवाजों को बाल साहित्य में जगह देने का और विविधतापूर्ण साहित्य विकसित करने का प्रयास भी कर रही है। बाल साहित्य को विकसित करने के अनुभवों पर एकलव्य के प्रकाशन टीम की सदस्य दीपाली शुक्ला से प्रयोग टीम की जैनब और सिद्धि ने संवाद किया। यह आलेख इसी बातचीत पर आधारित है।

जैनब : दीपाली जी हम आपके सफर के बारे में जानना चाहेंगे। आपकी लॉ की पृष्ठभूमि है, आपने मानव अधिकार में स्पेशलाइजेशन किया है और कुछ साल पत्रकारिता भी की है। इन अनुभवों ने आपके काम को और एकलव्य में आपके अभी तक के सफर को कैसे प्रभावित किया?

दीपाली : यह पूरा सफर काफी रोमांचक रहा है। एक समय मैं काफी कहानियाँ लिखा करती थी और ये जो लिखने का शौक था वह मेरी अपनी शिक्षा के साथ साथ चलता रहा। स्नातक के बाद मेरी दिलचस्पी लॉ पढ़ने में थी क्योंकि यह एक ऐसा विषय था जो मुझे काननू को जानने-समझने में मदद करने वाला था। दूसरा, उस वक्त लड़कियाँ लॉ कम ही पढ़ा करती थी। आज से लगभग बाईस साल पहले मानव अधिकार हमारे देश में उभर ही रहा था। इसके साथ ही महिलाओं को लेकर देश में नए-नए कानून और दिशा- निर्देश भी आए थे। लेखन की बात करूं तो मैंने महिलाओं से जुड़ी काफी कहानियाँ लिखी हैं जो अलग-अलग अखबारों और पत्रिका- ओ में प्रकाशित हुई। मजे की बात यह है कि मेरी पढ़ाई और नौकरी साथ-साथ चल रहे थे। एक तरफ लॉ की पढ़ाई और दूसरी तरफ प्रिंट मीडिया में सब-एडिटर के रूप में कामा छह साल तक प्रिंट मीडिया से जुड़ने के बाद मैं इसी क्षेत्र में आगे काम करने का सोच रही थी। उन्हीं दिनों एकलव्य फाउण्डेशन के बारे में पता चला। मैंने ‘ सम्पादकीय टीम से जुड़ने के लिए आवेदन किया और मेरा चयन हो गया। शुरू-शुरू में एकलव्य का माहौल मेरे लिए एकदम नया था। यहाँ हायराकर्की नहीं थी, उस तरह से डेडलाइन नहीं थी जैसी प्रिंट मीडिया में होती थी। किताबों को बनाने के कुछ हिस्से मेरे काम से जुड़ते गए। धीरे-धीरे स्क्रिप्ट को पढ़ने से लेकर उसका सम्पादन, उसकी डिजाइन को लेकर चित्रकार के साथ चर्चा, लेखको के साथ फीडबैक, अनुबन्ध यह सब काम मेरे रोजमर्रा के कामो में शामिल होते गए। एक सम्पादक के तौर पर खुद पर काम करने और खुद को बेहतर करने का काम तो था ही। एकलव्य में एक और बडिया बात यह होती है कि यहाँ सम्पादकीय टीम लगातार साहित्य को लेकर बात करती है जिससे हम विभिन्न नजरियों को जान पाते हैं। इससे पढ़ने का चस्का भी बढ़झा दो साल तक सम्पादकीय टीम में फैलोशिप करने के बाद यह लगा कि यहाँ आगे भी काम करना चाहिए क्योंकि काम करने की आजादी है, टीम का सहयोग है और सबसे बड़ी बात कि काम में मजा आ रहा है। धीरे धीरे साल बढ़ते गए। और आज जब मैं अपने सफर को पीछे मुड़कर देखती हूँ तो यह महसूस करती हूँ कि यहाँ काम का सक्रिय और सकारात्मक माहौल, शिक्षा को लेकर विचार और दर्शन मुझे कहीं अन्दर तक छू गया है। यहाँ काम करने की आजादी है, मौके हैं और अगर आप पहल लेते हैं तो फिर आप काफी आगे बढ़ सकते हैं। मैंने ग्यारह साल तक सम्पादकीय टीम के साथ काम किया। उसी दौरान मुझे यह महसूस हुआ कि जिन बच्चों के लिए हम किताबें बनाते हैं यो इन किताबों को कैसे देखते-समझते हैं, एक पाठक के तौर पर उनकी प्रतिक्रिया क्या होती है, समुदाय में पढ़ने का माहौल नहीं है तो साहित्य के साथ जुड़ाव बनाने में उन्हें किस किस्म की दिक्कतें आती हैं. इन सब मुद्दों पर काम किया जाए। उसके बाद ही मैंने रीडिंग और लाइब्रेरी में काम शुरू किया और फिलहाल इस काम को कर रही हूँ। इस तरह से मेरा पूरा सफर ही रोमांचक रहा है।

सिद्धि : बच्चों के लिए बाल साहित्य प्रकाशित करते वक्त किन- किन बिन्दुओं और विषयों को ध्यान में रखा जाता है? साथ ही जिस बाल साहित्य की बात की जा रही है उसके लिए बच्चों को कैसे और कहाँ शामिल किया जाता है?

दीपाली: पहला यह कि साहित्य बच्चों को सोचने-विचारने का मौका देता हो, दूसरा रचनात्मकता और कल्पनाशीलता को जगह देता हो और तीसरा उसमें नैतिकता का पाठ सीधे तौर पर न हो। जिस तरह का बाल साहित्य एकलव्य प्रकाशित करता आया है और कर रहा है उसमें एक विविधता देखने को मिलती है। जिस तरह से बच्चों में, उनके बचपन में विविधता पाई जाती है वही विविधता साहित्य में भी दिखनी चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए एकलव्य द्वारा प्रकाशित किताबों में आपको ऐसे बच्चे भी मिलेगे जो आमतौर पर मुख्यधारा की किताबों में विरले ही देखने को मिलते हैं। जिन बच्चों के लिए किताबे विकसित हो रही है उनकी जिन्दगी के द्रद्र, उनके रिश्तो, उनके संघर्षों को साहित्य मे शामिल करना जरूरी है और हम इसका प्रयास करते हैं।

कई बार यह देखने के लिए कि बच्चे कहानी के साथ और चित्रो के साथ खुद को कैसे जोड़ रहे हैं, मैंने स्क्रिप्ट को बच्चों के बीय पढ़कर उसके बारे में चचर्चा भी की है। एकलव्य के फील्ड कार्यक्रमो में लगातार ऐसे बच्चो के साथ काम होता है जो आदिवासी समुदाय या वचित समुदायों से है। उदाहरण के तौर पर, पिछले 4 साल से भोपाल के आसपास जो गाँग है वहाँ पर एक रीडिंग प्रोजेक्ट चल रहा था उसमें बड़ी संख्या वंचित समुदायों के बच्चों की थी। अगर हम हिन्दी भाषी इलाके की बात करें तो पढ़ने का माहौल समुदाय में न होना एक चुनौती है, दूसरा बच्चों के लिए बाल साहित्य की उपलब्धता भी एक पसला है। स्कूलों में किताबे है लेकिन लाइब्रेरी का सक्रिय संचालन एक और बठा मुद्दा है। ऐसे में जब आप बच्चों कि साहित्य वने विकसित करने की प्रक्रिया में शामिल होते है तो यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण होता है कि आप जिन बच्चों के बारे में विचार कर रहे है उन्हें पाठ्‌यपुस्तक के अलावा पढ़ने के मौके बहुरा ही कम मिलते हैं, परिवार में भी पढ़ने का माहौल नहीं होता है, तो ऐसे में बच्चों के साहित्य में किस तरह की किताबें शामिल होनी चाहिए? क्योंकि पाठ्यपुस्तक के जो पात है वे किसी एक नजरिए से चीजों को देखने और समहाने के मौके देते हैं और उनमें कहीं न कहीं नैतिकता पर जोर होता है। पाठ्यपुस्तकै अपने अनुभव से सीखने का, किसी परिस्थिति में हमने जो सोचा उस पर और ज्यादा सोच-विचार करने का मौका नहीं देतीं।

जिस तरह से शिक्षा समहा, सोच-विचार करने, तर्क करने को विकसित करती है, वैसे ही साहित्य आपको अपने आसपास के परिवेश को देखने, उस पर सवाल करने, उस पर चिन्तन करने के मौके देता है। चिन्तन की ये सम्भावनाएँ सब ज्यादा होती है जब बच्चे किसी कहानी को पढ़कर उसके बारे में सोचें, उसे लेकर अपने विचारों को अपने साथियों या वयस्कों के साथ साझा करें, अपने किसी अनुभव को उससे जोड़ पाएँ, उसके किसी पात्र से जुठाव महसूस करे या उसके किसी ऐसे हिस्से पर बात करें जो उन्हें पसन्द आया या नहीं पसन्द आया, इस बाबत एक राय बने और उसमें सिखाने का आग्रह न हो। उसमें यह पर्याप्त गुंजाइश हो कि बच्चे जब उस कहानी को पढ़ रहे हों तो उसे लेकर कहीं ना कहीं उनके मन में कुछ सवाल आए, कुछ जिज्ञासा प्रकट हो। हमने अपने बचपन में जो खेलगीत गाए है, उसमें जिस तरह की तुकब न्दियों और शब्दों का खेल था. घटनाएँ थी वह हमारी जिन्दगी से घुला-मिला था इसलिए वो हमें याद रह गए। सम्भव है कि आज जब हम उन खेलगीतों के बारे में गहराई से सोचें तो उसमें कुछ दिक्कते नजर आ सकती है पर फिर यह भी विचार करना होगा कि सबकी परिस्थितियों और अनुभव अलग-अलग होते हैं। इसलिए बच्चों के जीवन में, उनके आसपास, उनके परिवार, उनके समुदाय में जो कुछ भी घट रहा है वो सब कुछ उनके साहित्य में भी आना चाहिए। दूसरा पात्रो का सक्रिय होना भी जरूरी है, मतलब जो भी कहानी है उसके यार खासकर बच्चे किसी समस्या से किस तरह से जुड़ाकर समाधान की तरफ जा रहे है यह कहानी में शामिल होना चाहिए अगर हम विविधता की बात करें तो हम पाएंगे कि गाँव में या फिर शहर में रहते हुए भी बच्चों के बचपन में कितनी विविधता है। इस विविधता को कहानियों में दिखना जरूरी है। कहानी के विषय में भी विविधता की जरूरत है, यानी सबकी आवाजी सबके प्रतिनिधित्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए ये साहित्य जिन बच्चों के लिए है वो कहीं ना कहीं उन कहानियों में, किताबों ने इस विविधता को देखें और समझे ऐसा हमारा प्रयास है मैने देखा है कि जब बच्चे ऐसा साहित्य पढ़ते है तो उससे जुड़ पाते है उस पर बच्चो की आपस में बातचीत होती है कि मेरे नाथसेना हुई हैं मेरे दोस्त के साथ ऐसा हुआ है, मैंने अपनी माँ को भी कभी-वाभी ऐसा व्यवहार करते देखा है जैसा कहानी में है। जब बच्चे इस साहित्य को पढ़ते हैं तो कहानियों पर चर्चा होने के साथ-साथ जेंडर, समाधा में व्याप्त अन्य कई प्रकार के भेदभाव पर भी चर्चा होती है और बच्चे यह सब समझ पाते हैं। धर्म को लेकर भी यह सपक्ष बनती है कि हमारी तरह और लोगों के भी धर्म हैं जिनके बारे में जानता महत्वपू र्ण है। ऐसी चर्चाओं से बच्चों में एक शामिलियत (inclusivity) की भावना आ पाती है। जैसे में अगर काँचा इलय्या की ‘माँ कविता का जिक्र कतै तो उसमें उन्होंने एक माँ के संघर्ष और उसकी ताकत को दर्शाया है, या दिलेर बड़ेय्या की कहानी जिसमें बच्चा देख रहा है कि माँ को एक ऊंची जाति के व्यक्ति के आने पर अपनी चप्पलों को कैसे रखना है, या ईरानी कहानी ‘कीमिया जिसमें एक बच्ची मौत को चकमा दे रही है। मौत जैसे विषय पर यह कहानी पढ़ने वालों को एक अलग नजरिया देती है।


सिद्धि: आप जिन विविधताओं की बात कर रही है उनके अलावा भी भारत में अनेक विविधताएँ हैं, परिवेश है तो उन सब को स्थान देने के लिए आप लोग क्या प्रयास करते हैं?

दीपाली: हमारे देश में भौगोलिक और सास्कृतिक विविधताएँ काफी हैं। एकलव्य ने इस ओर कुछ कोशिश की है, जैसे लोक कथाओ, कहानियों का संकलन, गोण्ड, परधान शैली और भील शैली में किताबों में चिशंकन, खेलगीतों के संकलन आदि। इराक अलावा अलग-अलग सरस्थाओं द्वारा विकसित किए गए साहित्य को हिन्दी में अनुवादित करके प्रकाशित करने का प्रयास भी किया गया है। बम्बू… टस से मस होने वाला गधा किलाम इसका एक उदाहरण है। कोशिश यह भी है कि किताबों का अनुवाद दूसरी भारतीय भाषाओं में भी हो और साहित्य उन पातको तक भी पहुंचे। इसके लिए भी समय-समय पर कोशिश की गई है। शेड्यूल और नॉग शेड्‌यूल, दोनों ही भाषाओं में सामग्री-निर्माण और अनुवाद के काम जारी हैं।

सिद्धि: जब किसी समुदाय पर किताब लिखी जाती है, तब उसकी वास्तविकता का ध्यान कैसे रखा जाता है? कुछ हद तक आपने इसके बारे में पहले बताया है, पर क्या आप उसमें कुछ और जोड़ना चाहेंगी?

दीपाली : बडवानी, मध्यप्रदेश के आधारशिला स्कूल के बच्चों ने अकाल को लेकर अपने समुदाय का एक डॉक्युमेंटेशन किया। कई सालों पहले जब अकाल पड़ा था उस वक्त लोगों ने क्या खाया, क्या सामग्री इस्तेमाल की थी, दिन कैसे गुजरे, इन सब को उन्होंने दर्ज किया। जब यह पाण्डुलिपि प्रकाशन के लिए टीम के पास आई तो उस वक्त इस बात को लेकर काफी चर्चा हुई कि इसको कैसे डिजाइन करें। यह भी बात हुई कि इसके लिए चित्रकार को आधार शिला स्कूल के बच्चों के साथ कुछ समय बिताना चाहिए, समुदाय को भी जानना समहाना चाहिए। नर्गिस जिन्होंने इसको डिजाइन किया उन्होंने बच्चों और समुदाय के साथ चर्चा की, उन्हें जाना- समझा और उनकी जिन्दगी को करीब से देखा। इससे जो किताब तैयार हुई यो समुदाय, अकाल की स्थिति को समाने में मददगार रही। प्रकाशन कार्यक्रम में सम्पादकीय टीम के साथ ही डिजाइन टीम भी है जो चित्रकारों के साथ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर संवाद करती है और लगातार उनके साथ काम करती है।

जैनब : प्रकाशक होने के नाते आप अपने दायित्व को कैसे देखती है? बाल साहित्य में प्रकाशकों की क्या भूमिका होनी चाहिए?

दीपाली: एकलव्य संस्था शिक्षा के क्षेत्र में काम करती है जिससे बच्चों, शिक्षकों और समुदाय के साथ काम करना शामिल है इसलिए सस्था साहित्य की जरूरत को अलग अलग नजरियों से समझ पाती है। बाल साहित्य में सभी आवाजो को जगह मिले, इसके लिए तो हम काम करती रहे है। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि जिन बच्चों के लिए बाल साहित्य विकसित किया जा रहा है उन तक यह पहुंचे। किताबों का इस्तेमाल मजे के लिए पढ़ने के लिए, सीखने-सिखाने के लिए कैसे किया जाए इसके बारे में जन शिक्षकों, अभिभावकों के साथ काम करने की कोशिश की जाती है जो बच्चों के साथ काम करते हैं। किताबें बच्चों की पहुँच में हों और उन्हें पढ़ा जाए यह भी महत्त्वपूर्ण है। बच्चों को उनकी भाषा में साहित्य पढ़ने का मौका मिले, इसके लिए हम प्रयास कर रहे हैं। साहित्य अपने पाठकों के लिए खिड़‌कियों और दर्पण दोनों का ही काम करता है इसलिए ऐसी कहानियाँ आगे भी विकसित की जाएंगी। इसी तरह नॉन फिक्शन में भी विभिन्न तरह की सामग्री हो इसके लिए भी इन पगन परर रहे हैं।

कुछ प्रकाशक लगातार बढ़िया साहित्य प्रकाशित कर रहे हैं। इकतारा की किताबें काफी अच्छी हैं। उनमें विविधता है, न केवल विषयों की बल्कि विधाओं की भी। मुस्कान संस्था द्वारा विकसित बाल साहित्य भी बच्चों के जीवन में आँकने और उनके संघर्ष को समझने का मौका देता है। तूलिका की किताबें भी विविधता से भरी है।

सिद्धि : अभी के बाल साहित्य या प्रकाशकों के बारे में आपके क्या विचार है? क्या आप उनका ध्यान किन्हीं खास विषयों पर केन्द्रित करना चाहेगी?

दीपाली : बाल साहित्य में इन दिनों काफी कुछ ऐसा भी रचा जा रहा है जो बहुत बढ़िया है। इसमें यात्रा विवरण (travelogue), उप- न्यास, अनुभव, कहानियों के संकलन, कविताएँ, नाटक, विषयगत किताबें, जैसे-जेंडर पर, पहचान पर आदि सभी शामिल है। यह काम दो तरह से हो रहा है, एक तो कई संस्थाएँ इस साहित्य को विकसित कर रही हैं, जैसे दिल्ली में अंकुर संस्था बच्चों के लेखन पर काम कर रही है। इनके द्वारा प्रकाशित किताब ‘बालबीती’ लॉ- कडाउन के अनुभवों को सामने रखती है। इस तरह के प्रयासों से बच्चों का लिखा हुआ साहित्य लगातार बाल साहित्य में शामिल हो पा रहा है। विशेष जरूरत वाले बच्चों पर कहानियाँ आ रही हैं जो आपको इन बच्चों के बारे में सोचने का एक अलग नजरिया देती हैं और पुरानी सोच को तोड़ने में मदद करती हैं। प्रकृति और कविता का एक बढ़िया मेल ‘ओ पेड़ रंगरेज’ किताब में दिखता है। इस किताब में दी गई नेचुरल रंग बनाने की गतिविधि केवल गतिविधि भर नहीं है बल्कि यह कुदरत को गहराई से महसूस करने का मौका देती है। इन दिनों बिग बुक भी प्रकाशित हो रही हैं जो बच्चों को कहानी और इसके चित्रों के साथ एक सफर पर ले जाती है है। चकमक पत्रिका के साथ-साथ प्लूटो जैसी शानदार पत्रिकाएँ भी प्रकाशित हो रही है। कल्पवृक्ष संस्था ने पर्यावरण को लेकर बहुत अच्छा गैर-कथा साहित्य विकसित किया है। इस सबसे एक उम्मीद बनी रहती है कि चाहे खेल हो या मौत या फिर प्रेम जैसे विषय हो, पहचान का मुद्दा हो या फिर जेंडर का, इन सभी पर किताबें आएँगी। खासतौर पर शिक्षा और साहित्य को लेकर जो अलग अलग सोच है उसमें बहुत सारे ऐसे धागे हैं जिनके सिरे एक-दूसरे से मिलते है। बाल साहित्य में कविताओं में भी एक बदलाव दिखता है, जैसे. सुशील शुक्ल की कविता- ‘ये सारा उजाला सूरज का’, को पढ़कर, आप बहुत कुछ महसूस करते हैं। हिन्दी में नाटक काफी कम है, इन पर किताबें आनी चाहिए। गतिविधियों की किताबें भी जरूरी हैं। लम्बी कहानियों के साथ ही छोटी कहानियाँ भी हों तो पाठक बनाने के सफर में मदद मिलेगी।

तमाम बच्चों तक इन कहानियों के पहुँचने के साथ ही यह भी जरूरी है कि लाइब्ररी में बच्चों के साथ काम करने वाले लोग भी इन कहानियों से जुड़ें क्योंकि बाल साहित्य केवल बच्चों के लिए नहीं है, सभी के लिए है। इसलिए लाइब्रेरियन/सुसाध्यकर्ता भी उससे जुड़ें, पढ़ने का एक एक माहौल बनाएँ यह बहुत जरूरी है। उदाहरण के लिए एक किताब है ‘बोरेवाला’ जिसे एक रीडिंग फैसिलिटेटर पढ़ रही थी और हम दोनों उसके बारे में बात कर रहे थे। उन्होंने कई बार कहा कि उन्हें उस कहानी की भाषा समझ नहीं आ रही।

फिर बात करते करते हम एक ऐसे मोड़ पर पहुँचे जहाँ उन्होंने अपने गाँव में किसी विक्षिप्त इन्सान को लेकर अपने अनुभव साझा किए। वह एक ऐसा मोड़ था जहाँ से कहानी के साथ उनका जुड़ाव होना शुरू हुआ क्योंकि वह कहानी एक छोटी बच्ची और एक विक्षिप्त इन्सान के बीच के रिश्ते को दर्शाती है। तो मुझे लगता है कि सभी के द्वारा बाल साहित्य का पढ़ना और उस पर बातचीत के मौके मिलना बहुत जरूरी है। क्योंकि अगर बच्चों की किताबों की बात करें तो उसकी समीक्षा भी काफी कम देखने को मिलती है इसलिए अलग-अलग माध्यमों से बाल साहित्य पर चर्चा भी बहुत जरूरी है।

जैनब : एक किताब की रचना में लेखक, चित्रकार, अनुवादक और प्रकाशक को एक साथ मिलकर काम करने में क्या-क्या चुनौतियाँ पेश आती है? आप उनका सामना कैसे करते हैं और काम को आगे कैसे ले जाते हैं?

दीपाली: मान लीजिए कोई कहानी आई है और उसमें कुछ कुछ ऐसे मुद्दे है जिन पर लेखक को पुनःविचार करने और चीजों को थोड़ा और खुलवार देखने की जणरत है, तो इस बारे में लेखक तो साथ संताद करना और जिन पाठकों के लिए यह किताब है, वे कैसे उसको देखेंगे, इसकी तरफ लेकर जाना एक चुनौती होती है। इसी तरह की चुनौती का सामना चित्रकारों को भी करना पड़‌ता है। उन्हें कहानी के मूड के मुताबिक चित्र बनाने होते हैं। अगर कहानी किसी खास इलाके की है तो कैसे चित्र होने चाहिए इन बारीकियों का ध्यान रखना जरूरी होता है। चित्रकार को यह ध्यान देना होता है कि चित्र केवल कहानी में लिखी हुई बातों को ही न दशाए बल्कि तसे भी दर्शाए जो मूल पाठ में न हो ताकि चित्र कहानी की बारीकियों को किताब में ला सके क्योंकि बहुत बार हम चित्र भी पढ़ते है। यह एक और चुनौती है जो चित्रकारों के साथ काम करते समय डिजाइन टीम के समक्ष पेश आती है।

इसके अलावा पूरी दुनिया में बाल साहित्य में किस प्रकार का काम चल रहा है उसमे से उम्दा साहित्य को ढूँढना, पढ़‌ना, लेखकों को ढूँढना, उनके लिखे हुए को पढ़ना, यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए समय लगाना भी जरूरी होता है क्योंकि आप अच्छा साहित्य लगातार ढूंढ रहे होते हैं। एक किताब है ‘जल्द बहुत जल्द जो तीन पीढ़ियों की कहानी है और यह कहानी लगातार फ्लैशबैक में जाती है। इसके चित्र एकदम अलग हैं तो यह किताब थोड़ा ठहर कर सोचने के मौके देती है और आपके साथ अलग तरह से संवाद करती है। इस तरह का साहित्य जो शायद आपके परिवेश का न हो आपको दुनिया में चल रही चीजों से जोड़ने में मदद करता है। तो अच्छे साहित्य को तलाशना लेखक, चित्रकार को खोजना इसमें कई चुनौतियाँ आती है और यही असल में सम्पादकीय टीम की – भूमिका है जो एक साथ चर्चा करते हैं, काम करते हैं और तब जाकर कोई किताब बनकर तैयार हो पाती है।

सिद्धि : आप लोग पुस्तकालय पर काम करने वाली संस्थाओं को अपने प्रकाशन से कैसे जोड़ पाते हैं? यदि कोई नई संस्था या पहल हो जो बच्चों के पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हो तो आप लोग उन्हें कैसे सहयोग करते हैं?

दीपाली: इसमें दो-तीन तरीके से सहयोग दिया जाता है। एक तो ये कि कहीं कहीं कुछ साथी बच्चों के लिए पुस्तकालय संचालित करने को लेकर इच्छुक होते हैं तो उनका क्षमतावर्धन करना, किताबों के बारे में उनकी समझ को और बढ़ाने के लिए कार्यशालाएं करना, उनको एकलव्य के फील्ड कार्यक्रमों में शामिल होने का अवसर देना ताकि वो देख सके कि फील्ड पर कैसे काम हो रहा है। दूसरा जो बाल साहित्य एकलव्य ने प्रकाशित किया है उसकी सूची को उनके साथ सराझा करना। इसके अलावा इसको लेकर भी प्रयास होता है कि पुस्तकालय केवल एक एक्स्चेज की जगह न हो बल्कि वो एक सक्रिय लाइब्रेरी हो और उसमे तमाम तरह की किताबों को लेकर चर्चाएँ, गतिविधियाँ हो। इसमें जो साथी उत्सुक होते हैं वो आते है एकलव्य के कार्यक्रम को जानने, साहित्य को पढ़ने, चर्चाएं करते किताबों से जुड़ाव बनाने, कौन-सा साहित्य अपने परिवेश में ले जाना चाहिए इस पर सुझाव देना, उनका प्रशिक्षण करना इन बालो में हम उनकी मदद करते है।

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Vinit ranjan
Vinit is a library educator and Program Cooordinator at PRAYOG. He has been with the organization since 2015 and has played an integral role in its growth and success. Binit holds a Master’s degree in Social Work and is currently leading the operations of PRAYOG's library work in schools and community sites. He strongly believes that every child deserves access to diverse books to explore the world of books, and he sees his work with PRAYOG as an opportunity to take the shared vision forward.
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