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बाल साहित्य की मदद से समझकर पढ़ने की शुरुआत

Sheeshpal, Satish, Sheetal, Vedpal and Chirag, in their article, discuss their collaborative efforts with the government for promoting reading with comprehension with the aid of children’s literature.

1 min read
Published On : 4 January 2024
Modified On : 21 November 2024
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एसवीएसएस संस्था द्वारा वर्ष 1997 से समालखा खण्ड में ड्राप-आउट और लेफ्ट- आउट बच्चों की शिक्षा के लिए वैकल्पिक पद्धति पर आधारित जीवनशाला कार्यक्रम चलाया गया। इस जीवनशाला कार्यक्रम के अनुभवों के आधार पर वर्ष 2016 में 8 राजकीय प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों और बच्चों के साथ भाषा शिक्षण का कार्य किया गया। इसके फलस्वरूप न केवल बच्चों की लिखने और पढ़ने की क्षमता बेहतर हुई बल्कि शिक्षकों की शिक्षण प्रक्रियाओं में भी बदलाव देखने को मिले। इस अनुभव से हमने सीखा कि पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया को प्रभावी और जीवन्त बनाने के लिए बच्चों को बाल साहित्य पढ़ने के अधिक से अधिक अवसर दिए जाने चाहिए। इस समझ को आधार बनाकर वर्ष 2020 से समालखा के 36 स्कूलों में ‘समझकर पढ़ने में बाल साहित्य की भूमिका’ नामक परियोजना के माध्यम से काम शुरू किया गया और बाल साहित्य में शिक्षकों की रुचि पैदा करने के प्रयास किए गए। साथ ही इसके लिए भी काम किया गया कि वे शिक्षण में बाल साहित्य की जरूरत और महत्त्व को समझ सकें।

शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सी संस्थाएँ नवाचार करती रही हैं। संस्थाएँ अपने विज़न और मिशन के अनुरूप अपने वर्किंग मॉडल के अनुसार आसानी से काम कर लेती हैं लेकिन जब शिक्षा में व्यापक स्तर पर बदलाव के लिए इस वर्किंग मॉडल को सरकारी तंत्र में लागू करने की बारी आती है तो प्रक्रियाएँ और चुनौतियाँ अलग तरह की होती हैं। अधिकतर संस्थाएँ सरकार के साथ अनुबंध करके अपने वर्किंग मॉडल को सरकारी तंत्र में लागू करने की कोशिश करती हैं जबकि कुछ संस्थाएँ बिना अनुबंध के ऐसा करने की कोशिश करती हैं। दोनों ही परिस्थितियों में कुछ चुनौतियाँ तो एक जैसी होती हैं और कुछ अलग तरह की होती हैं। हम इस लेख के माध्यम से बिना अनुबंध के काम की प्रक्रिया और चुनौतियों की चर्चा करने का प्रयास करेंगे।

जब हम किसी भी स्कूल में अपने वर्किंग मॉडल के अनुरूप काम करने के मकसद से जाते हैं तो स्कूल में काम कर रहे लोग यानी शिक्षक और शिक्षिकाएँ इसे निजता में अनावश्यक हस्तक्षेप मानते हैं। उन्हें लगता है कि बाहरी लोग उनके काम करने के तौर-तरीकों को देखकर उनके प्रति नकारात्मक छवि बनाएँगे। दूसरा उनको यह भी लगता है कि वे अपना शिक्षण कार्य ठीक तरीके से करते हैं। समालखा खण्ड के राजकीय स्कूल के अध्यापकों के साथ भाषा शिक्षण पर 3 वर्ष काम करने के बाद हमने फीडबैक फार्म भरवाया जिसमें शिक्षकों ने कुछ ऐसी ही बातें हमसे लिखित रूप में साझा कीं। इस फार्म के माध्यम से हम जानना चाहते थे कि हमारी संस्था के प्रयासों से भाषा शिक्षण में क्या बदलाव आए हैं। साथ ही हमने यह जानने का भी प्रयास किया कि जब हम शुरुआत में स्कूल में आते थे तो उस समय शिक्षकों को कैसा महसूस होता था और वे हमारे बारे में क्या सोचते थे तथा अब वे हमारे बारे में क्या सोचते हैं। इस फीडबैक फार्म में एक शिक्षक ने संस्था के बारे में जो लिखा वह काफी रोचक है-

“जो पहली धारणा बनी वो यह थी कि यह टीम एक एनजीओ की टीम है जो विद्यालय में मात्र खानापूर्ति के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज करवाकर अपने जीवन निर्वाह के लिए सरकार से अनुदान राशि प्राप्त करने की अभिलाषा करती है व उसी पर निर्भर है। दूसरी बात जो मन में आई वह यह थी कि सम्भवतः एनजीओ की यह टीम विद्यालय में दाखिल बच्चों के मानसिक विकास व अधिगम स्तर का आकलन करेगी। इसके बाद अपने द्वारा जाँचे गए छात्रों की प्रगति का नकारात्मक दृष्टिकोण से आकलन कर यह शिक्षा विभाग के सामने विद्यालय व शिक्षकों की छवि को धूमिल करेगी। तीसरी धारणा यह थी कि यह टीम विद्यालय के पठन-पाठन के समय का दुरुपयोग मात्र करेगी। इसका परिणाम विद्यार्थियों के परीक्षा परिणाम के स्तर में कमी के रूप में दिखेगा।”

सरकारी तंत्र के साथ काम करते हुए हमारी संस्था को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा उनको इस तरह से वर्गीकृत किया जा सकता है-

  1. शिक्षकों में गैर सरकारी संस्थाओं की नकारात्मक छवि को तोड़ना और उनमें एक सहयोगकर्ता के रूप में उनकी स्वीकार्यता एवं उनके प्रति विश्वास स्थापित करना।
  2. कुछ शिक्षकों के इस विश्वास को तोड़ना कि संस्था के लोगों को बच्चों को पढ़ाने का कोई अनुभव नहीं है। वे उनके काम में अनावश्यक हस्तक्षेप मात्र करेंगे।
  3. हमारी शैक्षिक योग्यता रहित स्वयंसेवी टीम की क्षमताओं के विकास की चुनौती। विशेष रूप से अनुभवी शिक्षकों के साथ भाषा शिक्षण की प्रक्रियाओं के बारे में संवाद कौशल विकसित करने की चुनौती।
  4. शिक्षा विभाग के साथ किसी भी तरह के अनुबन्ध के बिना अधिकारियों के साथ अनुभवों के आदान-प्रदान एवं काम के विस्तार की योजना बनाने में चुनौती।

उपरोक्त चुनौतियों के बावजूद हम कुछ शिक्षकों की धारणा बदलते हुए उनकी क्षमता संवर्धन के लिए कुछ काम कर पाए। इसका एक कारण यह था कि संस्था के गठन के समय से ही 4 से 5 राजकीय विद्यालयों के साथ हमारा परिचय था और शिक्षकों के साथ हमारा संवाद होता रहता था। हम समय-समय पर विभिन्न गतिविधियाँ जैसे— बाल-मेले, नाटक की प्रस्तुति, शिक्षकों के साथ शैक्षिक विचार-विमर्श एवं सेमिनार आदि करते रहे हैं। 2-3 विद्यालयों की स्कूल प्रबन्धन समिति में संस्था के साथी सक्रिय सदस्य हैं जो विद्यालय के कार्यों, शिक्षकों के समक्ष आ रही चुनौतियों के समाधान के लिए प्रयास करते हैं।

वर्ष 2020 में हमने विप्रो के सहयोग से समझकर पढ़ने में बाल साहित्य की भूमिका नामक परियोजना शुरू की। इसका एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य यह था कि शिक्षक समझकर पढ़ने में बाल साहित्य की भूमिका को समझ पाएँ ताकि वे बच्चों को सिखाने में बाल साहित्य का इस्तेमाल कर पाएँ। हमारा अनुभव बताता है कि बच्चों के साथ बाल साहित्य के माध्यम से शिक्षण करवाते रहने से लक्षित बच्चों का भाषा शिक्षण तो बेहतर हो जाएगा लेकिन शिक्षक यदि इसको अपनी शिक्षण प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनाएँगे तो यह बदलाव स्थाई नहीं होगा। इसीलिए हमने कक्षा में शिक्षक की उपस्थिति में हाव-भाव के साथ बालगीत गायन, रीड अलाउड, मौखिक कहानी सुनना- सुनाना आदि गतिविधियाँ कीं। इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप बच्चों का लर्निंग गैप कम होता हुआ दिखाई दिया और वे समझकर सीखने की ओर अग्रसर हुए। इसे देखकर शिक्षक भी प्रेरित हुए। इसके साथ-साथ हमने शिक्षकों के साथ शिक्षण में पुस्तकालय एवं बाल साहित्य की जरूरत पर संवाद शुरू किया और इसमें शिक्षकों को शामिल करते हुए स्कूली पुस्तकालय में बच्चों के स्तरानुसार पुस्तकों को छाँटकर पुस्तकालय को सुचारू रूप से चलाने के सम्बन्ध में शिक्षकों की समझ एवं कौशल को विकसित किया। संस्था की ओर से बाल साहित्य की 100 पुस्तकों का सेट भी विद्यालयों को दिया गया। जहाँ जरूरत थी वहाँ पुस्तकें रखने के लिए एक हैंगिंग बैग भी उपलब्ध करवाया गया। शिक्षकों के साथ विमर्श के पश्चात शिक्षकों ने कक्षाओं के टाइम टेबल में सप्ताह में एक या दो दिन लाइब्रेरी का कालांश लगाना भी शुरू किया।

जब शिक्षकों के साथ हमारा संवाद कुछ आगे बढ़ा तो हमें महसूस हुआ कि शिक्षक पाठ्यपुस्तक के दबाव से मुक्त नहीं हो पा रहे थे। वे बाल साहित्य और पाठ्यपुस्तक में दिए गए पाठों को अलग करके देख रहे थे। अभी भी वे पाठों के अन्त में अभ्यास के लिए दिए गए प्रश्नों को याद करने पर ही जोर देते थे। इस समस्या को ध्यान में रखते हुए हमने उन्हें शिक्षा और शिक्षण सम्बन्धी लेख और किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित किया, जैसे—दिवास्वप्न, तोत्तोचान, पहला अध्यापक, बच्चे असफल कैसे होते हैं आदि। इनको पढ़ने के बाद शिक्षकों के साथ हमने इन पर चर्चाएँ भी की गईं। इसका यह प्रभाव हुआ की शिक्षकों की समझ एवं शिक्षण के तरीकों में बदलाव नजर आने लगे। अब से पहले अधिकांश शिक्षकों ने अपने जीवन काल में सिर्फ उन्हीं पुस्तकों को पढ़ा था जो पाठ्यक्रम का हिस्सा थीं। उन्होंने कभी-कधार प्रशिक्षणों में एक दो किताबों के नाम जरूर सुने थे।

इन सारे प्रयासों के फलस्वरूप वर्तमान में 100 के आसपास शिक्षक हमारे साथ विमर्श में जुड़े हुए हैं। इनमें से 40 से अधिक शिक्षक ऐसे हैं जो शैक्षिक गतिविधियों में ज्यादा गहराई से रुचि लेने लगे हैं। हमने सभी शिक्षकों के साथ एक साथ काम शुरू नहीं किया था। ये 40 शिक्षक उनमें से हैं जिनके साथ हमने वर्ष 2020 में ही संवाद, मॉडल शिक्षण, लेख पढ़कर उन पर चर्चा आदि शुरू कर दिया था। हमें लगता है कि समय के साथ शैक्षिक गतिविधियों में बाकी शिक्षकों की रुचि भी बढ़ेगी। इस काम को अंजाम देने के लिए संस्था द्वारा अपनाई गई कुछ प्रक्रियाएँ इस प्रकार हैं-

मॉडल शिक्षण

स्कूलों में साप्ताहिक आउटरीच के दौरान मॉडल शिक्षण के माध्यम से कक्षा में शिक्षक की उपस्थिति में दो तरह से कार्य किया जाता है। सबसे पहले उन बच्चों को चिह्नित करके उनके साथ टीएलएम के माध्यम से वर्ण पहचान यानी डिकोडिंग का कार्य किया जाता है जिन्हें केवल वर्णों की पहचान है और अन्य के साथ बाल साहित्य की गतिविधियों, बाल गीतों एवं कहानियों, के माध्यम से भाषा संवर्धन का कार्य चलता है। जब शिक्षक कक्षा में बाल साहित्य की गतिविधियों के दौरान बच्चों की सक्रियता एवं जीवन्तता को देखते हैं तो वे बालगीतों एवं कहानियों पर काम करने के कौशल भी सीखते हैं। शिक्षकों के साथ हुए विमर्श एवं मॉडल शिक्षण के आधार पर कई शिक्षकों ने अपनी कक्षाओं में बच्चों की बैठक व्यवस्था को बदल दिया। इस तरह से कुछ शिक्षक बच्चों के और करीब आए। उन्होंने अपने पद जनित रुतबे को खत्म करने का प्रयास किया। प्रात:कालीन सभा में शिक्षक और बच्चों द्वारा बालगीत, कविताओं और कहानियों की शुरुआत भी दिखाई देती है।

सामुदायिक पुस्तकालयों /लर्निंग सेंटर की स्थापना स्कूल में बच्चों को कम समय के लिए और सीमित मात्रा में ही बाल साहित्य से रूबरू होने का मौका मिल पाता है इसलिए हमारा लक्ष्य यह भी रहा कि हम लक्षित स्कूलों से जुड़े हुए गाँवों में सामुदायिक जगहों पर पुस्तकालय या लर्निंग सेंटर स्थापित करें ताकि बच्चों को कक्षा के बँधे-बँधाए ढाँचे से अलग अपने आसपास ही स्वतंत्र तौर पर बाल साहित्य उपलब्ध हो। लर्निंग सेंटर में बच्चों को उनकी रुचि के अनुरूप वैविध्यपूर्ण साहित्य का आनन्द लेने के अवसर मिल पाते हैं। वहाँ हमारे साथियों को भी शिक्षकों की निगरानी के बिना बच्चों के साथ स्वतंत्र ढंग से गतिविधियाँ करवाने के अवसर मिल पाते हैं।

स्कूल स्तर पर शिक्षक प्रशिक्षण

हमने अपने अनुभवों से यह समझा कि शिक्षकों का सेवाकालीन प्रशिक्षण स्कूल स्तर पर ही ज्यादा प्रभावी रहता है। कुछ शिक्षक ब्लॉक या जिला स्तर पर आयोजित किए जानेवाले प्रशिक्षणों को बच्चों की पढ़ाई में नुकसान के तौर पर देखते हैं और इसे समय की बर्बादी भी मानते हैं। उनका यह भी कहना होता है कि स्कूल की विशेष जरूरतों के अनुरूप प्रशिक्षण नहीं दिए जाते हैं।

समालखा खण्ड के स्कूलों में स्कूल स्तर पर प्रशिक्षण इसलिए भी सम्भव हो पाया क्योंकि इनमें औसतन 5-6 शिक्षक हैं। स्कूल में साप्ताहिक आउटरीच के दौरान मॉडल टीचिंग के बाद की चर्चाओं को हमने प्रशिक्षण की तरह से इस्तेमाल किया।

संस्था के वर्किंग मॉडल को टिकाऊ बनाने के प्रयास

संस्था के प्रयासों से शिक्षण प्रक्रियाओं में हुए बदलावों को स्थायी बनाने की जरूरत हमेशा होती है। ऐसे इसलिए ताकि स्थानान्तरण होने पर भी शिक्षक इन्हें लगातार जारी रह सकें। इसके लिए भी विशेष प्रयास करने की जरूरत होती है। इस दिशा में भी हमारे द्वारा किए जा रहे कुछ प्रयास इस प्रकार हैं :

  • हमारे साथी साप्ताहिक आउटरीच के माध्यम से शिक्षकों के साथ मिलकर आने वाले सप्ताह की पाठ योजना बनाते हैं। अगले सप्ताह की आउटरीच के दौरान हमारे साथी की उपस्थिति में शिक्षक उस योजना के अनुरूप शिक्षण करते हैं। कक्षा के अन्त में शिक्षक के साथ शिक्षण पर चर्चा की जाती है और अगले सप्ताह की पाठ योजना बनाई जाती है।
  • स्कूल स्तर पर हम स्कूल के प्रधानध्यापक की उपस्थति में होनेवाली मासिक बैठकों में भाग लेते हैं। इन बैठकों में हम उस माह हुए कार्यों का फीडबैक लेने का प्रयास करते हैं साथ ही स्कूल की शैक्षिक ज़रूरतों पर भी चर्चा करने की कोशिश करते हैं।
  • शिक्षकों में से 10-12 शिक्षकों को चिह्नित किया गया है जो भाषा शिक्षण के स्त्रोत व्यक्ति की भूमिका लेने की प्रक्रिया में हैं। इसी तरह से 110 शिक्षकों को उनकी क्षमता के अनुरूप विभिन्न स्तरों में वर्गीकृत किया गया है ताकि उनकी क्षमता संवर्धन की योजना बेहतर ढंग से लागू की जा सके।

बच्चों एवं शिक्षकों के साथ किए गए इन कार्यों से शिक्षकों के साथ विमर्श के कुछ और बिन्दु व मुद्दे उभरकर आए। अब अधिकतर शिक्षकों ने स्कूली पुस्तकालय का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। कुछ शिक्षक खुद भी साहित्य पढ़ने लगे हैं और बच्चों को भी पढ़ने के अवसर देते हैं। इस प्रक्रिया में बच्चों की साहित्य में रुचि बढ़ी है और उनमें समझकर पढ़ने की प्रवृत्ति भी विकसित हुई है।

शिक्षकों की समझ एवं व्यवहार में हुए बदलाव के बारे में एक शिक्षिका ने कुछ इस तरह से लिखा: “जब मैंने शहीद वीरेंद्र स्मारक समिति की शिक्षा में काम करने वाली टीम को पहली बार अपने स्कूल में देखा तो लगा कि ये अपनी उपस्थिति दर्ज कराने मात्र आए हैं। इन्हें हम शिक्षकों की चुनौतियों से तो कोई वास्ता नहीं है और न ही इन्हें शिक्षण का कोई अनुभव है। फिर भी मुझे लगा कि इन्हें एक मौका देना चाहिए, हो सकता है कुछ अलग अनुभव हो। यह सोचकर मैंने इन्हें अपनी कक्षा में काम करने का मौका दिया और मैं स्वयं भी इनके साथ कक्षा में रही।

“टीम के सदस्य ने कक्षा की शुरुआत बाल गीतों से की। व सुर-ताल, भाव भंगिमाओं के साथ बालगीत करवा कर रहे थे। बच्चे भी उनके साथ शामिल हो गए थे। अगले दिन मैंने देखा कि स्कूल आने के समय कुछ बच्चे पहले दिन करवाए गए गीत को हाव-भाव के साथ गा रहे थे। बच्चों में सीखने की लालसा को देख मुझे अच्छा लगा साथ ही कुछ ऐसा ही प्रयास करने के लिए मैं प्रेरित भी हुई।

“टीम का चित्र के साथ कहानी वर्णन और अक्षर की पहचान व शब्दों को जोड़ने का तरीका बहुत ही असरदार रहा। इनकी वर्ण सिखाने की विधि एकदम रुचिकर है, बच्चे तुरन्त चित्र व वर्ण में सम्बन्ध बना लेते हैं। इससे बच्चों के सीखने में सुधार दिखाई देने लगे। बच्चों द्वारा पढ़ना सीखने की शुरुआत करने के बाद, उन्हें कहानी की पुस्तकें दे दी जाती थीं। बच्चे इन्हें पढ़ने लगते थे और पुस्तक में बने चित्रों के माध्यम से लिखी हुई सामग्री का अर्थ समझने का प्रयास करते थे। मुझे ऐसा लगता है यदि हम शिक्षक बच्चों के साथ बाल साहित्य का उपयोग शुरुआती कक्षाओं में ही करें तो ताउम्र साहित्य में उनकी रुचि बनी रहेगी।

“ये साथी हम शिक्षकों को भी कुछ कहानी व लेख पढ़ने को देते हैं ताकि हमारी भी पढ़ने में रुचि बने। इनकी कक्षा कक्ष प्रबंधन की शैली भी काफी प्रभावी व अलग है।

इसके तहत ये बच्चों को स्व-अनुशासन सिखाते हैं। कुछ ही समय में बच्चे स्व- अनुशासन में रहना सीख लेते हैं। टीम के सदस्यों के कामों से प्रेरणा लेते हुए मैं स्वयं भी कक्षा शिक्षण को बेहतर करने का प्रयास कर रही हूँ।” – (सुशीला- शिक्षिका, राजकीय प्राथमिक विद्यालय, गाँव- छदिया)

इन सकारात्मक बदलावों के बावजूद अभी भी हमारे सामने कुछ चुनौतियाँ मौजूद हैं। शिक्षा विभाग के साथ हमारा तालमेल बहुत बेहतर नहीं हो पाया है जिससे काम की निरन्तरता एवं स्थायित्व की सम्भावना कमजोर बनी रहती है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि शिक्षा में व्यापक बदलाव के लिए यह जरूरी है कि संस्थाएँ सरकारी तंत्र के साथ मिलकर काम करें लेकिन यह चुनौती भरा भी होता है। हमने शुरुआत में जिन चुनौतियों का जिक्र किया था, उन पर हम कुछ हद तक काम कर पाए हैं। अब शिक्षकों के साथ हमारा रिश्ता पहले से ज्यादा मजबूत हुआ है। अब हम उनके लिए बाहरी व्यक्ति नहीं रहे, वे हमारे साथ शैक्षिक एवं व्यक्तिगत जीवन की समस्याएँ भी साझा कर लेते हैं। यह शायद अनौपचारिक विमर्श, शैक्षिक एवं सामाजिक काम के प्रति संस्था की प्रतिबद्धता एवं स्वैच्छिक प्रयासों से सम्भव हो पाया है। एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इस दौरान हमने शिक्षकों से बहुत अधिक सीखा है, इसकी तुलना में हम उन्हें थोड़ा बहुत ही कुछ सिखा पाए होंगे। हमने सीखने-सिखाने की इस दोहरी प्रक्रिया को हमेशा ध्यान रखा है तभी शायद हमारे साथी शिक्षकों के साथ विश्वास का रिश्ता कायम कर पाए हैं।

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Sheeshpal
Sheeshpal has been associated with the organization since its inception. He has a special interest in children's literature discussions and writing.
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