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प्राथमिक कक्षाओं में गणित शिक्षण की स्थिति — समस्याएँ और समाधान

In a conversation with the Samuhik Pahal team, Professor Rohit Dhankar discusses some foundational aspects of children’s learning processes associated with mathematics, and alerts us to pitfalls associated with common approaches to the issue.

1 min read
Published On : 8 February 2022
Modified On : 21 November 2024
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प्रश्न : आप स्कूली स्तर पर गणित शिक्षण की वर्तमान स्थिति का आकलन कैसे करते हैं?

उत्तर : मैं प्राथमिक शिक्षा अर्थात कक्षा 1 से लेकर 8 तक की शिक्षा पर अधिक बात करूँगा। जहाँ तक मेरी समझ है, गणित शिक्षण की स्थिति अच्छी तो नहीं है। ऐसे विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण हुए हैं जो साफ तौर पर दर्शाते हैं कि शिक्षा क्रम में बच्चों से जो कुछ अपेक्षित है उसकी तुलना में वो बहुत कम सीख रहे हैं लेकिन मुझे लगता है कि स्थिति इससे ज्यादा खराब है क्योंकि वो जो कुछ भी सीख रहे हैं वह भी एक तरह से रटाई पर आधारित है। वे गणित को बिना समझे जो भी प्रक्रियाएँ (procedures) और एल्गोरिथम (algorithm) 1 सीख रहे हैं उनके पीछे के औचित्य को या तार्किक आधार को बहुत कम सिखाया जाता है।

एक और बड़ी समस्या यह है कि ट्रिक्स पर और रट लेने पर ज्यादा जोर है। यह सच है कि बच्चे कुछ हद तक इन एल्गोरिथम और प्रक्रियाओं को लागू करना सीख लेते हैं लेकिन इससे उनमें न तो गणित आगे सीखने के लिए कोई उत्साह बन पाता है, न ही मानवीय चिन्तन का विकास हो पाता है और न ही जीवन में गणित के उचित प्रकार के उपयोग की क्षमता विकसित हो पाती है। यह आगे सीखने में भी बहुत काम में नहीं आ सकता, केवल परीक्षा पास करने में काम आता है।

अब यह स्थिति कितनी व्यापक है, कितने प्रतिशत बच्चों के साथ है इसके बारे में मैं बहुत ज्यादा नहीं कह पाऊँगा, लेकिन मेरी अध्यापकों से जो बातचीत होती है उसमें यह बात बहुत स्पष्ट है। तो इस दृष्टि से देखें तो गणित का शिक्षण बहुत कम हो रहा है, केवल कुछ प्रक्रियाएँ, कुछ एल्गोरिथम, कुछ ट्रिक्स वगैरह सिखाए जा रहे हैं वह भी शिक्षा क्रम में जितना अपेक्षित है उससे काफी कम है।

प्रश्न : अपने तीन दशकों के अनुभव के आधार पर बताइए कि क्या आपको लगता है कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत में, प्राइवेट और सरकारी स्कूलों में या फिर अलग अलग प्रकार के बोर्ड में जैसे– राज्यों के बोर्ड, सीबीएसई बोर्ड, आईसीएसई बोर्ड और आजकल तो अन्तरराष्ट्रीय बोर्ड भी आ गए हैं, प्राथमिक स्तर पर गणित शिक्षण की स्थिति में कुछ विविधता है या फिर सभी जगह स्थिति खराब ही है?

उत्तर : मुझे लगता है विविधता होनी चाहिए। मेरे पास इसका कोई शोध नहीं है, मैंने बहुत ज्यादा इसका अध्ययन भी नहीं किया है लेकिन मुझे लगता है इसमें काफी विविधता है। सरकारी प्राथमिक स्कूलों में, प्राइवेट स्कूलों में और सरकार के भी एक से अधिक प्रकार के विद्यालय हैं, इनमें जिस तरह से गणित सिखाई जाती है उसमें विविधता तो है लेकिन अगर हम उन विद्यालयों की बात करें जो आम लोगों की पहुँच में हैं तो उनमें गणित को समझकर सीखने का रिवाज कम ही है। कुछ विद्यालय हो सकते हैं जहाँ समझकर सीखने पर जोर हो। मैंने कुछ प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों से बातचीत की है, कई बार वो इस बारे में चिन्तित दिखाई देते हैं। लेकिन आगे हम इस बारे में बात करेंगे कि भले ही वो विषय के शिक्षण को लेकर चिन्तित हों लेकिन जो तरीके वो काम में लेते हैं वो और भी समस्याजनक हो सकते हैं इसलिए जरूरी नहीं है कि बहुत गम्भीर इच्छा के बावजूद गणित शिक्षण के प्रति उनकी दृष्टि सही हो।

प्रश्न : तो इस सन्दर्भ में क्या आप हमें पिछले कुछ दशकों में दिगन्तर में किए गए अपने काम के बारे में बता सकते हैं? आपने कौन सी पद्धति इस्तेमाल की? और वहाँ आपका काम मुख्यधारा के स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर होनेवाले गणित शिक्षण से कैसे अलग था? आपने अलग से काम करने का क्यों सोचा और इस काम को कैसे किया?

उत्तर : मैं आपके इस सवाल के एक हिस्से को, आपने जो सवाल मुझे लिखकर भेजे थे उसके एक सवाल से मिला देता हूँ। उसमें आप यह पूछ रहे थे कि शिक्षाक्रम और शिक्षा नीति में जो सुझाव दिए गए हैं उनसे स्कूलों में, उनके तौर-तरीकों में कुछ बदलाव होगा या नहीं। यदि हम इसको इस नजर से देखें कि शिक्षाक्रम और शिक्षा नीतियों में शिक्षा के प्रति और विषयों के प्रति एक दृष्टि की अभिव्यक्ति होती है व शिक्षण पद्धति और मूल सिद्धान्तों की तरफ कुछ इशारे होते हैं और उसके कारण बदलाव होते हैं।

तो मूल रूप से हम यह कह सकते हैं कि शिक्षा के बारे में और गणित के बारे में दिगन्तर की जो मान्यताएँ थीं और हैं बात वहाँ से निकल रही है और परिवर्तन की बात वहीं से आती है। इसका ठीक से जवाब देने के लिए मुझे बहुत सी अमूर्त बातें करनी पड़ेंगी और उसमें थोड़ा वक्त लगेगा तो मैं जल्दी-जल्दी कुछ मान्यताएँ आपके सामने रखता हूँ।

देखिए मानसिक विकास शिक्षा का प्रमुख मुद्दा होता है और मानसिक विकास एक जैविक और संश्लिष्ट प्रक्रिया होती है। यहाँ जिस अर्थ में मैं ‘जैविक’ का इस्तेमाल कर रहा हूँ उससे मेरा मतलब जीवित नहीं बल्कि मूलभूत है और जिस सन्दर्भ में मैं बात कर रहा हूँ वहाँ जैविक से मेरा तात्पर्य यह है कि मानसिक विकास ऊपर से चिपकाया नहीं जा सकता। यह भीतर विकसित होता है और यह बहुत सी चीजों का मिश्रण है, हम इसे खण्डों में नहीं बाँट सकते। इसका मूल एक तरफ तो अनुभव में होता है और दूसरी तरफ चिन्तन में होता है।

तो आप यह कह सकते हैं कि मानसिक विकास तब होता है जब अनुभव और चिन्तन दोनों मिलते हैं। तो एक मोटी सी बात हम यह मान लेते हैं। अब एक दूसरी बात यह है कि आप कांट से और कहीं सहमत हों या ना हों लेकिन उनका एक प्रसिद्ध वाक्य एकदम सही है। उन्होंने कहा है कि अनुभव अवधारणाओं के बिना अन्धा होता है और अवधारणाएँ अनुभवजनित बोध के बिना खाली अर्थात अर्थहीन होती हैं। तो यदि यह बात सही है तो हमें आगे यह देखना पड़ेगा कि मानसिक विकास सीखने की प्रक्रिया का नतीजा होता है और सीखना पहले से उपलब्ध अनुभव और विचार से नए अनुभव और विचार को जोड़कर सार्थक बनाने का नाम है। मतलब हम किसी नई परिस्थिति का अर्थ अपने पुराने विचारों और अनुभव के आधार पर निकालते हैं और उसे पुराने अनुभव और विचार में समाहित करके सीखते हैं। इसमें एक बात और जोड़ लीजिए कि हम यह सारी बातें काफी सोच समझकर मानकर चलते थे कि अवधारणाओं के बिना चिन्तन नहीं हो सकता है और अवधारणाएँ भाषा के बिना नहीं बन सकतीं। तो अब इन सारी बातों को एक साथ मिलाने पर आप पाएँगे कि इसके लिए फिर ये है जरूरी है कि एक तरफ तो अनुभव हो और दूसरी तरफ विश्लेषण हो और वह भाषा के माध्यम से ही हो सकता है।

तो पहली बात तो यह है कि प्रारम्भिक भाषा का विकास गणित सीखने के लिए भी बहुत जरूरी है। लेकिन गणित की एक और समस्या यह है कि शुरू में ‘गणितीय चिह्न पहचानकर संख्या संक्रिया में उपयोग’ (symbol manipulation) के माध्यम से गणित सीखने का भान दिया जा सकता है।

मतलब यदि आप किसी बच्चे से कहें कि एक से सौ तक गिनती लिखो तो वह उन संख्याओं के मान और उन संख्याओं के बारे में किसी समझ के बिना पैटर्न के आधार पर लिख सकता है। इस प्रकार से पैटर्न के आधार पर जोड़, बाकी, गुणा सब कुछ किया जा सकता है। यह गणित में बहुत देर तक चल सकता है क्योंकि गणित के संकेत चिह्न बहुत (notation) निश्चित हैं और उनमें एक तरफ जहाँ तर्क है तो दूसरी तरफ बहुत सशक्त पैटर्न भी है। आप तर्क के बिना पैटर्न के आधार पर गणित के सवाल कर सकते हैं। तो यह जो समस्या है इस समस्या से छुटकारा आप तभी पा सकते हैं जब आपके पास गणित पर बात करने के लिए भाषा हो।

दिगन्तर की दूसरी मान्यता गणित में बात करने, सोचने और संवाद करने को लेकर थी। मुझे इस बात का काफी अनुभव है कि यदि आप प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षकों से केवल इतना पूछें कि अंक (number), संख्या (number), और संख्या अंक (numerals) में क्या फर्क है तो आप पाएँगे कि बहुत भ्रमित जवाब और विचार आएँगे। एक जाना माना जवाब यह मिलेगा कि एक से नौ तक के तो अंक (digit) होते हैं और उससे ऊपर संख्याएँ होती हैं अर्थात नौ से नीचे संख्या नहीं होती (हँसते हुए)। मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि हमारे पास गणित में बात करने के लिए उचित किस्म की भाषा तक नहीं है। तो ये कुछ मान्यताएँ थीं जिनको लेकर हम लोगों ने गणित में अलग तरह से काम करना शुरू किया। यह सब कैसे किया और उसमें आगे क्या क्या परिवर्तन हुए वो आपके बाकी सवालों के जवाब में आ जाएगा।

गणित में एक और बहुत महत्वपूर्ण बात जिस पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है वो यह है कि यदि आपने गणित को ‘गणितीय चिह्न पहचानकर संख्या संक्रिया में उपयोग’ (symbol manipulation) के माध्यम से सीखा है तो ऐसी गणित थोड़ी देर बार ठप हो जाती है क्योंकि संश्लिष्टता, पहले सीखे हुए पर निर्भरता और क्रमबद्धता बाकी विषयों की अपेक्षा गणित में कहीं ज्यादा है। इस पर ज्यादा बात करने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह सभी समझते हैं कि यदि आपने जोड़ नहीं समझा है तो आप गुणा नहीं समझ सकते, आपने बाकी नहीं समझा है और गुणा नहीं समझा है तो आप भाग नहीं समझ सकते। इस प्रकार यदि गणित में पहले की अवधारणाओं की समझ नहीं है तो आगे जाकर आपके पास रटने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। इसलिए ये बहुत जरूरी हो जाता है कि आरम्भिक गणित से बहुत सही ढंग से पेश आया जाए और इस पर हम लोगों ने काफी काम किया है।

एक और बात जिसका जिक्र हम सभी करते हैं और जिसका उल्लेख राष्ट्रीय पाठ्यचर्या २००5 के साथ लिखे गए गणित शिक्षण के पर्चे में भी किया गया है वो ये है जो हमने पहले बात की थी कि आगे सीखने के लिए मानसिक विकास जरूरी है, मानसिक विकास के लिए अनुभव और विचार जरूरी हैं और भाषा के बिना विचार सम्भव नहीं है। लेकिन असल में विचार को बेहतर करने के लिए तर्क की भी जरूरत होती है और तर्क की मूलभूत संरचना बहुत अमूर्त होती है। तो यदि आपको बच्चे को तार्किकता सिखानी है तो गणित उसका सबसे अच्छा माध्यम है। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे मानसिक विकास के मूल में भाषा और गणित हैं और इसलिए गणित पर विशेष ध्यान देने की जरूरत से है।

मुझे ऐसा भी लगता है कि हम लोग तार्किक चिन्तन पर भी कम ध्यान देते हैं। उसके बहुत सारे कारण हैं, कुछ वैचारिक हैं, कुछ बिना समझे हैं। लेकिन आप बाकी कुछ भी कहें कौटिल्य की एक बात बहुत सही है, वो अपनी किताब के दूसरे अध्याय की शुरुआत में ही कहते हैं कि “आन्वीक्षिकी सभी विद्याओं की शाश्वत प्रदीप है” अर्थात तर्क के बिना बाकी विद्याओं का बोध नहीं हो सकता, उनका उजाला नहीं फैलेगा।

तो अब यदि हम दोबारा से देखें तो ये दिगन्तर की मान्यताएँ रही हैं जो पाठ्यचर्या 2005 में और उसके गणित के पर्चे में भी बहुत स्पष्ट हैं। तो इस बात को ध्यान में रखते हुए हमें गणित के लिए कुछ ऐसा तरीका अपनाना पड़ा जिसमें अनुभव, भाषा, चिन्तन और समस्याओं का स्वयं समाधान इन चार बातों के आधार पर एक क्रमबद्ध तरीके से गणित की समझ विकसित हो। उसका विस्तृत वर्णन या कुछ उदाहरण मैं आगे दे दूँगा। आप ये कह सकते हैं कि ये कुछ सैद्धान्तिक मान्यताएँ है जो मुझे अभी भी लगता है कि गणित में बहुत जरूरी हैं।

प्रश्न : अब हम तीसरे सवाल पर आते हैं कि पाठ्यचर्या से सम्बन्धित नीतिगत बदलावों को ध्यान में रखते हुए गणित शिक्षण में बदलाव लाने की कितनी जरूरत है या फिर क्या हम ऐसा बोल सकते हैं कि गणित शिक्षण की मान्यता शाश्वत है और नीतिगत बदलावों से स्वतन्त्र है?

उतर : देखिए आप ये तो कह सकते हैं और इस पर बहस भी की जा सकती है कि गणित में जो स्वतः सिद्ध संरचना (axiomatic structure) बन चुकी है वो शाश्वत है लेकिन ये कहना कि गणित शिक्षण की मान्यताएँ शाश्वत हैं, ये तो बड़ी विचित्र बात हो जाएगी। कुछ बातों को शाश्वत माना जा सकता है जैसे चाणक्य की वह बात जिसके बारे में मैंने पहले बताया था कि “आन्वीक्षिकी सभी विद्याओं की शाश्वत प्रदीप है।” अब आप न मानना चाहें तो न मानें हो सकता है कि आपके पास कोई और प्रदीप हो (हँसते हुए)।

इसी प्रकार से कांट की ये बात कि बिना अवधारणाओं के अनुभव अन्धा होता है तो आप चाहे अनुभव पर बड़ी बड़ी कविताएँ लिख लीजिए और भावनात्मक रूप से खुश हो लीजिए लेकिन वैचारिक स्तर पर यदि आप दुनिया के बारे में बोध या ज्ञान विकसित करने में उसका उपयोग करना चाहते हैं तो आपको अवधारणा की जरूरत पड़ेगी। ऐसी कुछ बातें हो सकती हैं जो शाश्वत हैं लेकिन असली समस्या यह नहीं है, असली समस्या यह है कि गणित के बारे में हमारी अपनी जो मान्यताएँ हैं वो असल में बहुत स्पष्ट रूप से हमारे शिक्षाक्रम वगैरह में आई नहीं हैं।

मुझे ऐसा लगता है कि लोग गणित का जो दृष्टिकोण उपयोग कर रहे हैं वह समस्याजनक है। यदि हम पाठ्यचर्या 2005 को देखें तो उसमें उस दृष्टिकोण को बदलने की बात की गई है और यह जरूरी भी है। पहले मैं उस दृष्टिकोण के बारे में बताता हूँ। एक दृष्टिकोण यह है कि गणित विज्ञान की तरह है अर्थात विज्ञान में आप अनुभव करेंगे, प्रयोग करेंगे, रीडिंग लेंगे, उन रीडिंग का औसत निकालेंगे और उससे ज्ञान बन जाएगा। इसके लिए मान लीजिए हमने प्रयोग के तौर पर एक चने का पौधा उगाकर देखा कि सात दिन में उगा, दोबारा देखा कि सात दिन में उगा, तीसरी बार देखा कि नौ दिन में उगा तो औसत निकाल लिया कि साढ़े सात दिन में उगता है।

तो गणित को लेकर एक दृष्टिकोण यह है जो कि एकदम गलत है। गणित ऐसे काम करती ही नहीं है। दूसरे दृष्टिकोण के तहत यह कहा जाता है कि गणित की प्रयोगशाला बना दीजिए और बच्चों को बहुत से प्रयोग करने दीजिए, इससे बच्चे अपने आप से खोज कर लेंगे। इसमें समस्या यह है कि बोधात्मक अवधारणाओं (perceptual concepts) की खोज तो हो सकती है लेकिन सैद्धान्तिक अमूर्त अवधारणाओं (theoretical abstract concepts) की नहीं हो सकती और होगी भी तो दस हजार साल लगेंगे।

अगर इस प्रकार की खोज किसी व्यक्ति द्वारा की जाए तो उसमें भी बहुत मेहनत लगेगी। जैसे अगर आप आज किसी बच्चे को यह खोज करने को कहें कि अभाज्य संख्या (prime number) क्या होती है तो उसको यह खोज करने में हजार साल तक लग जाएँगे। शिक्षा के कई दर्शनशास्त्रियों ने यह तर्क दिया है कि यदि उचित वातावरण दिया जाए तो बोधात्मक (perceptual) और व्यावहारिक (functional) अवधारणाओं की खोज सम्भव है लेकिन जो सैद्धान्तिक अवधारणाएँ किसी चीज को समझने के लिए जानबूझकर किसी इन्सान द्वारा बनाई गई हैं उनकी खोज बहुत मुश्किल है। यह उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति को बताना पड़ेगा जो पहले से उनके बारे में जानता हो।

प्रश्न : तो रोहित जी यहाँ पर यदि आप गणित शिक्षा के सन्दर्भ में बोधात्मक श्रेणी में आने वाली अवधारणाओं और सैद्धान्तिक श्रेणी में आने वाली अवधारणाओं के एक दो उदाहरण दें तो हमारे पाठकों को समझने में कुछ सुविधा होगी।

उत्तर : देखिए समस्या यह है कि गणित में लगभग सभी अवधारणाएँ अमूर्त हैं। उनकी समझ तो हो सकती है, संवाद के माध्यम से उस तरफ इशारे हो सकते हैं और बच्चे अपने दिमाग में अवधारणाएँ निर्मित कर सकते हैं लेकिन वो स्वयं यह सब समझ सकेंगे या खोज सकेंगे यह मुश्किल है। हम कुछ उदाहरण लेते हैं, ये उदाहरण लोगों को बड़े अजीब से लग सकते हैं।

हम यहाँ से शुरू कर सकते हैं कि पाँच क्या है? क्या सचमुच में पाँच कोई मूर्त अवधारणा है? उदाहरण के लिए हम कह सकते हैं कि ये पाँच उँगलियाँ (अंगूठे सहित) हैं, पाँच कंचे हो सकते हैं, पाँच भैंसे हो सकती हैं, पाँच हाथी हो सकते हैं, लेकिन पाँच है क्या? और आप इस समझ को कैसे विकसित करेंगे कि आप पाँच को अलग अलग मूर्त और अमूर्त चीजों के सन्दर्भ में इस्तेमाल कर सकते हैं?

ये समझ तभी विकसित होगी जब हम इसे अनुभव करेंगे और उस अनुभव पर बात करेंगे। अब ये तो एकदम सरल अवधारणा है, अगर आप थोड़ा आगे चलें तो भाज्यता (divisibility) जो कि तीसरी चौथी में ही काम में आ जाती है, उसे सिखाते समय जब आप जोड़ की बात करते हैं उसमें आप दो चीजें पाँच और सात लेते हैं जो अपने आप में अमूर्त हैं और अब आप पाँच और सात में एक ऐसा सम्बन्ध बना रहे हैं कि वो एक तीसरी चीज दे पा रहा है। ये सारा का सारा जो खेल है ये तो पूरी तरह बनाया हुआ और अमूर्त खेल है। एल्गोरिथम (algorithms) भी इसी तरह की हैं। तो पूरी की पूरी गणित ही इस तरह से चलती है। गणित में सिर्फ और सिर्फ तीन आयामों वाले ठोस आकारों का ही प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। समस्या तब होती है जब हम समझते हैं कि हम बच्चे को प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा रेखा की अवधारणा और तल (plane) की अवधारणा भी सिखा सकते हैं। यहीं पर हम गल्ती करते हैं और बाद में फिर रेखा हमेशा बच्चे के दिमाग में मूर्त चीज बनी रहती है। आगे चलकर जब नौवीं दसवीं कक्षा में रेखा का समीकरण बनाते हैं तो न तो उसका कोई आकार होता है और न ही कुछ और, आपके सामने केवल इतना लिखा होता है Y=NX+C एक रेखा है और एक अन्य रेखा Y = M1X+C2 है और ये किसी बिन्दु पर एक दूसरे को काट रही हैं।

यह सारा जो खेल है इसमें अमूर्त सैद्धान्तिक अवधारणाएँ शामिल हैं। अब ऐसे में अगर आप इसे रेखा की अपनी पिछली वाली समझ कि तना हुआ धागा या एक सीधा डण्डा या लोहे का सीधा पाइप, को आधार बनाकर समझने का प्रयास करेंगे तो वो सब काम नहीं करने वाला। इसे दूसरे ढंग से कहें तो हम अपने अनुभव पर चिन्तन के माध्यम से उसका अमूर्तिकरण करते जाते हैं और उसमें से सारा भौतिक पदार्थ निकाल देते हैं। इसे थोड़ा इस तरह से देखिए, रेखा के बारे में यूक्लिड साहब कहते हैं कि बिना मोटाई और चौड़ाई की सिर्फ लम्बाई वाली चीज, तो जब आप मोटाई और चौड़ाई निकाल देंगे तो आपके दिमाग में एक खाली खाका बचेगा। अब अगर 5 की बात करें और इसे पाँच कंचे या कंकड़, पाँच ये या पाँच वो जैसी मूर्त चीजों से जोड़कर न देखें तो बाकी क्या बचा? बाकी एक मानसिक संरचना बची। तो सतत अमूर्तिकरण की इस प्रक्रिया पर हम अच्छी तरह से ध्यान नहीं देते हैं।

एक और समस्या यह है कि बहुत सारी अवधारणाएँ ऐसी हैं जो असल में पहले प्रक्रिया होती हैं और बाद में निश्चित रूप धारण करके अवधारणा बन जाती हैं और फिर उनको आप आगे मूर्त चीजों के रूप में काम में लेना शुरू कर देते हैं।

उदाहरण के लिए संख्या को समझने के लिए पहले आप कुछ चीजें लेते हैं और शब्दों का प्रयोग कर उन्हें गिनने की प्रक्रिया करते हुए उन चीजों का एक एक करके मिलान करते जाते हैं। जब आप एक, दो, तीन, चार…..आठ ऐसा बोलते हुए आठ पर रुक जाते हैं तो इस समूह का आखिरी शब्द यानी ‘आठ’ एक निश्चित रूप धारण करके संख्या बन जाता है। अब आप कहेंगे कि 8 और 2 को गुणा करें तो कितना होगा? 2 भी वैसे ही बना है जैसे 8 बना है। अब 8 और 2 प्रक्रिया से अलग दो स्वतन्त्र इकाई बनकर आपस में अन्तःक्रिया (interact) करने लगे हैं।

इस प्रकार गणित की अवधारणाएँ दोहरी प्रकृति की हैं, पहले एक प्रक्रिया और फिर प्रक्रिया से अलग होकर एक निश्चित रूप धारण करके एक इकाई बन जाना और फिर और इकाइयों (entities) को पैदा करने के लिए उस इकाई को काम में लेना। मुझे लगता है इसमें बहुत सारा अमूर्तिकरण है और वह बिना चिन्तन के और बिना बातचीत के नहीं हो सकता है।

गणित का जो पर्चा है उसमें गणित शिक्षण के दो प्रकार के उद्देश्य लिखे हैं जिसके बारे में जानते तो सभी हैं लेकिन इस पर कितना ध्यान देते हैं यह पता नहीं। एक उद्देश्य तो सीधा साधा है— जीवन में गणित का उपयोग अर्थात सब्जी खरीदने से लेकर आपका ईएमआई या भारतीय बजट की गणना करने तक। लेकिन उस पर्चे में यह भी लिखा है कि गणित वास्तव में आपके आन्तरिक संसाधनों को विकसित करने का काम भी करती है, मतलब अमूर्त और सटीक चिन्तन (precision) गणित में बहुत महत्त्वपूर्ण है।

यदि आप इस हिस्से पर सिर्फ और सिर्फ ठोस साधनों के माध्यम से और बिना बातचीत के काम करेंगे तो यह पूरा का पूरा छूट जाएगा और वो एक बड़ी समस्या है जो आजकल हमारे साथ हो रही है। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि बदलाव तो करना पड़ेगा और हमें यह भी समझना पड़ेगा कि गणित की समझ भी लगातार बदलती है।

अब मैं अपनी पाठ्यचर्या में से एक छोटा सा उदाहरण देता हूँ। आप पाएँगे कि 2005 की पाठ्यचर्या इस बात का जिक्र करती है कि गणित में केवल प्रक्रियाएँ और गणितीय तथ्य सीखने से काम नहीं चलेगा उसके पीछे की ज्ञानमीमांसा (epistemology) का अभ्यास और गणित के कुछ सोचने के तरीके भी सिखाए जाने चाहिए। पाठ्यचर्या में अन्य विषयों के सन्दर्भ में भी ज्ञानमीमांसा की बात की गई है। लेकिन 88 की पाठ्यचर्या में यह बात विज्ञान के लिए तो कही गई है लेकिन गणित के लिए नहीं, तो ऐसा नहीं है कि गणित के बारे में सभी दस्तावेज एक प्रकार की समझ रखते हैं।

तो मैंने बात यहाँ से शुरू की थी कि एक तो गणित को विज्ञान की तरह पढ़ाते हैं दूसरा भाषा या इतिहास की तरह (हँसते हुए) और तीसरा ये माना जाता है कि ठोस साधन (manipulants) दे दिए जाएँगे और उनके माध्यम से खोज हो जाएगी। इन तीनों पद्धतियों के फायदे और नुक्सान दोनों हैं। ऐसे में हमें विभिन्न स्रोतों से विचार लेकर एक ऐसी ग्रहणशील पद्धति ऐसी बनानी होगी जिसमें हमने जो शुरू में बात की थी कि मानसिक विकास एक संश्लिष्ट और जैविक प्रक्रिया है उस हिस्से पर ध्यान दिया जाए, तो उस दृष्टि से देखें तो परिवर्तन की जरूरत तो है। अब ये कितना हो रहा ये मुझे नहीं पता, मैंने हाल में इस पर कोई अध्ययन नहीं किया है।

प्रश्न : अब हम अपने चौथे सवाल पर आ सकते हैं। नई शिक्षा नीति बुनियादी संख्या ज्ञान और बुनियादी भाषा दोनों पर ध्यान देने की बात कहती है लेकिन फिर भी अधिकतर संस्थाएँ बुनियादी साक्षरता पर तो ध्यान देती हैं पर संख्या ज्ञान पर उतना ध्यान नहीं देतीं। कुछ वर्षों से बुनियादी गणित पर ध्यान देने की बात क्यों की जा रही है? नीतियों में अचानक से प्रारम्भिक अंक ज्ञान और गणितीय कौशलों की बात क्यों होने लगी है? आपके अनुसार ये परिवर्तन क्यों आया है?

उत्तर : देखिए मैं इस पर पहले ही बात कर चुका हूँ कि आगे कुछ भी सीखने के लिए भाषा और गणित बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। सीखना पहले सीखे हुए के आधार पर ही होता है। हमने यह भी बात की थी कि बाकी विद्याएँ सीखने के लिए तर्क की, भाषा की, अमूर्तिकरण की और प्रमात्रीकरण (quantification) की जरूरत पड़ती है। ये सब आप शुरू में भाषा और गणित के माध्यम से ही सीखते हैं और यदि आपने शुरू में इन पर काम नहीं किया तो इस खामी से उबरने के लिए आपके पास रटने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा।

मेरा व्यक्तिगत तौर पर ये मानना है कि हमारे यहाँ रटना इतना ज्यादा होने का कारण समझना बन्द होना है और समझना बन्द इसलिए हो जाता है क्योंकि शुरू में हम विचार बनाते हुए, अवधारणाएँ बनाते हुए, उनमें सम्बन्ध बनाते हुए ज्ञान निर्मित करने का काम नहीं करते।

न तो हम पढ़ने का काम उस तरह से करते हैं न ही गणित का और न ही हम बच्चे में तर्क विकसित करने के लिए उसे यह छूट देते हैं कि वह खुद से सोचकर नतीजे निकाले। हम कुछ चीजें उसके दिमाग में भरने की कोशिश करते हैं जो बच्चे के दिमाग में अलग अलग पड़ी रहती हैं। तो अब लोगों को ये समझ आ रहा है कि अगर आपने पहली, दूसरी और तीसरी कक्षा में भाषा और गणित ठीक से नहीं सिखाई तो आप आगे कितनी भी कोशिश करते रहिए ये समस्या हमेशा रहेगी। मेरे विचार से ये समस्या हम जितना समझते हैं उससे ज्यादा गम्भीर है।

मैंने वास्तव में जमीनी स्तर पर ऐसे प्रयोग किए हैं कि अगर आप शिक्षकों के समूह को दिवास्वप्न जैसी सरल किताब पढ़ने को दे दें तो वो उसके निहितार्थ नहीं समझते। वो कहानी सुना देंगे कि इसमें ऐसा हुआ, वैसा हुआ लेकिन असल में उस पुस्तक में कहा क्या जा रहा वो ये नहीं समझते और वो स्नातक हो सकते हैं। तो समझने में कठिनाई की ये समस्या सतत रूप से आगे चलती रहती है।

मेरे विचार से ये इसलिए नहीं होता कि लोगों में दिमाग नहीं होता ये इसलिए होता है क्योंकि हमसे एक जो बहुत बड़ी गल्ती होती है वो ये कि हम असल में बचपन से ही लोगों में सीखने की अवधारणा के बहुत भिन्न अर्थ गढ़ देते हैं। जैसे पढ़ने की अवधारणा डिकोडिंग तक, गणित सीखने की अवधारणा पहाड़े बोलने या एल्गोरिथम लगाने तक सीमित हो जाती है। पढ़ने की अवधारणा में से अर्थ और गणित में से तर्क गायब हो जाता है। फिर ये चार, पाँच, छह साल में दृढ़हो जाती है और बाद में जब मैं एक अनुच्छेद की डिकोडिंग कर लेता हूँ तो घोषित कर देता हूँ कि मैंने पढ़ लिया और ये सतत होता रहता है, मैं इस पर ध्यान ही नहीं देता। तो इसलिए बुनियादी स्तर पर इन दोनों पर ध्यान देना बहुत जरूरी है लेकिन ये केवल इनकी माला जपने से नहीं होने वाला।

प्रश्न : जी। तो सवाल यह है कि पिछले दो तीन साल से राष्ट्रीय स्तर पर प्रारम्भिक अंक ज्ञान को लेकर जो माला जपने का काम हो रहा हो रहा आपके अनुसार वो परिवर्तन क्यों हुआ और कैसे हुआ है?

उत्तर: देखिए क्यों हुआ है इसका जवाब मुझे बहुत ठीक से तो नहीं पता लेकिन दो तीन कारण हो सकते हैं। एक तो थोड़ा सा हमको ये ध्यान देना चाहिए कि लगभग 1980 के बाद से पश्चिमी देशों ने शिक्षा और आर्थिक विकास के बीच सम्बन्ध देखना और उसको स्थापित करना शुरू कर दिया था। हालाँकि ऐसा यह समझने के लिए हुआ कि समाज शिक्षा पर जो पैसा खर्च कर रहा है उसका कोई प्रतिफल मिल रहा है या नहीं और इस आर्थिक दृष्टि से गुणवत्ता पर ध्यान गया। अब क्योंकि भारत को बहुत जल्दी जल्दी आर्थिक विकास करना है तो गुणवत्ता पर ध्यान देना जरूरी है। तो एक वजह तो मुझे ये लगती है।

दूसरा यह है कि लगातार बहुत सारे सर्वेक्षण होते रहे हैं जिनसे पता चलता है कि हमारे बच्चों को पढ़ना भी नहीं आता और उन्हें अंक गणित तक ठीक से नहीं आता, बाकी गणित तो छोड़ ही दीजिए। इन दिनों आप यह भी सुन रहे हैं कि हम विश्व गुरु बनने की कामना भी रखते हैं तो ये तो बहुत बुद्धू किस्म का विश्व गुरु हो गया जिसे पढ़ना, जोड़, बाकी भी नहीं आता। तो एक तरफ ये समस्या है।

दूसरी तरफ पूरी दुनिया में तुलना शुरू हो गई है और हम खुद अपनी तुलना दूसरों के साथ करते हैं। तो ये सारी चीजें एक साथ मिल रही हैं और इससे ही मुझे लगता है कि ये सकारात्मक विचार उत्पन्न हुआ है कि केवल पत्तों में पानी देने से काम नहीं चलेगा आपको उसकी जड़ों में पानी देना पड़ेगा। तो ये चिन्तन यहीं से निकला है कि यदि आप इस समस्या पर शुरू में ही अच्छी तरह से काम नहीं करेंगे तो आगे इसे दुरुस्त नहीं किया जा सकेगा। लेकिन मुझे इस पर सन्देह है कि ‘अच्छी तरह से काम करने’ से नीति-निर्धारकों का क्या तात्पर्य है। वो हमेशा ‘अनुभव से सीखना’, ‘मजे के साथ सीखना’, ‘अवधारणाओं को सीखना’ जैसी शब्दावलियाँ फेंकते रहते हैं लेकिन वास्तव में इन सबका क्या मतलब है इसका कोई विवरण कहीं उपलब्ध नहीं है।

प्रश्न : जी। तो इसी को आधार बनाकर हम अपनी बातचीत को आगे बढ़ा सकते हैं। वैसे तो आप देखेंगे कि भारत में प्रारम्भिक गणित पर काम करने वाली ज्यादा गैर सरकारी संस्थाएँ और सरकारी संस्थाएँ हैं ही नहीं लेकिन जो संस्थाएँ इस पर काम शुरू करना चाहती हैं या जो किसी और क्षेत्र में काम कर रही हैं पर प्रारम्भिक अंक ज्ञान पर काम करना शुरू करना चाहती हैं क्या आप उन्हें गणित शिक्षा के उन शैक्षणिक पहलुओं के बारे में बता सकते हैं जो उनके लिए प्रासंगिक हों? आपने शुरू में हमें गणित शिक्षण के कुछ मुख्य शैक्षणिक पहलुओं के बारे में बताया। क्या आप कुछ अन्य पहलुओं पर भी चर्चा करना चाहेंगे या आप जिन पहलुओं के बारे में हमें बता चुके हैं उन्हें थोड़ा और विस्तार से बताना चाहेंगे?

उत्तर : मैं इस पर बात करूँगा कि बुनियादी गणित पर ध्यान देने के लिए किन शैक्षणिक पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए। हो सकता है कि बहुत से शोधकर्ता और गणित के शिक्षाविद मेरी बात से सहमत न हों लेकिन मैंने अपने तीन तरह के अनुभवों के आधार पर ये विचार बनाए हैं— एक तो जब मैं शिक्षा के क्षेत्र में आया तो उससे पहले शिक्षा के दर्शनशास्त्र पर शोध कर रहा था, दूसरा मैं 15 साल तक पहली से पाँचवीं तक के बच्चों को पढ़ाता रहा हूँ और तीसरा मैं शिक्षा के दर्शनशास्त्र में काम करता हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि शिक्षाशात्र में कुछ मूल बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। मैं बिन्दुवार उनके बारे में बताता हूँ और फिर बाद में हम इन पर विस्तार से बात करेंगे।

पहली बात तो यह है कि हमको गणित की प्रकृति पर ध्यान देना पड़ेगा, मतलब बच्चों को गणित की प्रकृति समझाने की जरूरत नहीं लेकिन जो गणित पढ़ा रहा है उसको गणित की प्रकृति समझनी पड़ेगी वरना वो ऐसी गणित पढ़ाएगा जो आगे जाकर ठप हो जाएगी। अर्थात हमें ये समझना पड़ेगा कि हम बच्चे को एक अमूर्त दुनिया में ले जा रहे हैं और जब तक वो कल्पनाशक्ति के सहारे अमूर्त तत्वों को प्रयोग में लेना नहीं सीखेगा तब तक काम नहीं चलेगा। दूसरा ये कि आप गणित को विज्ञान की तरह प्रयोग से नहीं सिखा सकते, अभी के लिए कंकड़ गिनना वगैरह ठीक है लेकिन आपका अन्तिम उद्देश्य तार्किक औचित्य तक जाना है।

तो अगर आप तीसरी चौथी में इस ढंग से पढ़ाते हैं कि बच्चे के दिमाग में ये बात बैठ जाए कि तार्किक औचित्य की जरूरत ही नहीं है, गणित ऐसे ही चलती है तो आप असल में उसके गणित के विकास को बाधित कर रहे हैं। तो शिक्षकों को गणित की प्रकृति को समझना होगा और गणित की प्रकृति में अमूर्तता, निश्चितता शामिल है। बहुत से लोग ये कहते हैं कि गणित में एक ही उत्तर नहीं होता बहुत से उत्तर होते हैं तो असल में बहुत सी चीजों का एक ही जवाब होता है। दूसरा सवाल जो शाश्वतता को लेकर है तो हाँ बहुत सारी गणित शाश्वत ही है, जैसे— जब तक संख्या प्रणाली के पीछे के स्वयं सिद्ध वक्तव्य (axiom) को ना बदला जाए तब तक दो और दो चार ही होंगे, वो कभी भी साढ़े तीन नहीं होंगे। भारत में ऐसे बहुत से प्रसिद्ध गणितज्ञ हैं जो कहते हैं कि साढ़े तीन या साढ़े सात भी हो जाएँगे तो मुझे लगता है कि वो संख्या की प्रकृति को गलत समझ रहे हैं।

तो एक तो इसे समझना पड़ेगा दूसरा ये समझना पड़ेगा कि गणित सीखने में अनुभव और विश्लेषण का रिश्ता बहुत गहरा है क्योंकि जब तक आपको अनुभव नहीं होगा तब तक आपके पास वो आधार नहीं होगा जिस पर बातचीत की जा सके या जिसका विश्लेषण किया जा सके। और यदि आप विश्लेषण नहीं करेंगे तो अमूर्तिकरण तक नहीं पहुँच सकेंगे।

फिर से अगर हम गिनने का ही उदाहरण लें तो ठीक है कि हम पत्थर या कंचों से गिनते हैं लेकिन अगला सवाल ये भी तो पूछा जा सकता है न कि यह बात सिर्फ कंचों पर ही लागू होती है या बटन पर भी लागू होगी? यहाँ आप उसको अमूर्तिकरण की तरफ ले जा रहे हैं और जब आप ये कहते हैं कि ये बात तालियों पर भी लागू होती है तो आप उसे और सोचने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। और जब आप कहते हैं कि मान लो तुम्हारे घर में फ्रिज है और उसमें चॉकलेट पड़ी हुई हैं, उस पर भी लागू होती है। अर्थात ये काल्पनिक चीजों पर भी लागू हो रही है। अब भले ही उसके घर में फ्रिज न हो, न ही उसमें चॉकलेट हों लेकिन वो कल्पना कर सकता है। अगर वो कंचे न होते तो ये संवाद नहीं हो सकता था और जब संवाद नहीं होगा तो बच्चे की कल्पना कंकड़ गिनने तक ही सीमित रहेगी।

तो मैं ये कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि अनुभव और संवाद के माध्यम से विश्लेषण के रिश्ते को हमें गणित के शिक्षाशास्त्र में फिर से देखना पड़ेगा। तीसरी बात ये है कि इस समय हमारे पास कोई मानक भाषा नहीं है जिसमें हम बच्चे के साथ गणित का संवाद कर सकें। हमारी किताबों में भी नहीं है और शिक्षक शिक्षा की जो किताबें हैं उनमें भी नहीं है।

प्रश्न : तो रोहित जी आप ये भारतीय भाषाओं के बारे में बात कर रहे हैं या फिर अँग्रेज़ी में भी ऐसी ही समस्या है?

उत्तर : नहीं नहीं मैं अँग्रेज़ी, हिन्दी की बात नहीं कर रहा हूँ मैं ये कहना चाहता हूँ कि बच्चे के साथ काम करते समय अनुभवों को सटीक ढंग से व्यक्त करने का अभ्यास हमें नहीं है और ये भ्रम आगे तक चलता है। मान लीजिए कि एक शिक्षक बच्चे को समझाता है कि मैंने तुमको जितनी चीजें दी हैं उनको गिनो और जो आखिरी शब्द है उसे बोलो। तो कुछ शिक्षक ऐसे समझाते हैं कि जब तुम गिन रहने हो तो पहले पत्थर को तुमने नाम दिया एक, इसको नाम दिया दो, इसको नाम दिया तीन, इसको नाम दिया चार, इसको नाम दिया पाँच तो ये संख्या है। अब यहाँ एक बहुत बड़ा भ्रम हो रहा है। ये एकदम गलत है और शिक्षक ऐसा बोलते हैं। तो इस वक्त भाषा नहीं है कहने से मेरा मतलब ये नहीं कि हिन्दी, अँग्रेज़ी या उड़िया में सम्भव नहीं, मैं कह रहा हूँ कि हमारे शिक्षाशास्त्रीय विमर्श में ये ठीक से नहीं आया है कि इस पर कैसे काम करें।

अब आप कल्पना कीजिए कि कोई शिक्षक बच्चों को लगातार ऐसे ही सिखाता रहा है तो बच्चा उससे क्या समझ रहा है, उसमें लगातार भ्रम है। चौथी बात जो हमारे शिक्षक साथियों को बहुत बुरी लगेगी वो ये कि हमारे कितने शिक्षक हैं जो वाकई में गणित की विषयवस्तु को ठीक से समझते हैं। हमने इस पर ध्यान दिया है क्या? मैं एक सरल सा उदाहरण देता हूँ जो मेरा बहुत प्रसिद्ध उदाहरण है। आप माध्यमिक कक्षाओं में पढ़ाने वाले ऐसे अध्यापकों से बात कीजिए जो उच्च माध्यमिक कक्षाओं में नहीं पढ़ाते हैं, आप उनसे भाग और एल्गोरिथम की तार्किक रूप से व्याख्या करने को कहिए। उनसे ये पूछिए कि क्या हम भाग को उल्टी तरफ से करने की विधि ईजाद कर सकते हैं? आप पाएँगे कि अधिकतर नहीं कर पाएँगे और सौ में से एक दो ही वर्गमूल निकालने की भाग वाली विधि का तर्क बता पाएँगे। तो मैं ये कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि शिक्षकों को सवाल हल करने आ सकते हैं लेकिन उनमें विषयवस्तु की समझ कितनी है इस पर सवालिया निशान है।

प्रश्न : क्यों कर रहे हैं और कैसे कर रहे हैं इसकी समझ?

उत्तर : हाँ और ये जो समस्या है ये बहुत गम्भीर है। यदि शिक्षक इस बात पर ध्यान देते तो वैदिक गणित बिल्कुल लोकप्रिय न होती। अभी गणित की कुछ ऐसी किताबें भी आई हैं जिनमें ट्रिक्स तो बहुत सारी हैं लेकिन क्यों हैं? तो हम लगभग वही गणित पढ़ा रहे हैं, वही से मेरा मतलब उस ट्रिक से नहीं है लेकिन तरीका वही है। तो ये अगली समस्या है और ये बात मैं फिर दोहरा देता हूँ कि अनुभव, सामग्री और विश्लेषण इनका सन्तुलन जरूरी है। देखिए एक तरीका हम लोग निकालते हैं कि सब जगह गणित की प्रयोगशाला बना दो और बहुत सारी सामग्री बना दो। अब इन दिनों गणित की इतनी सामग्री आ रही है लेकिन वह सामग्री अवधारणात्मक रूप से कितनी मजबूत है और उससे अवधारणाएँ निर्मित करने में कितनी मदद मिलेगी इस पर प्रश्न चिह्न है और इस तरह से विश्लेषण करना भी लोगों के लिए समस्याजनक है।

एक चीज होती है गिनमाला या गणितमाला। मैं गणितमाला की कोई बुराई नहीं कर रहा हूँ, ये बहुत अच्छी चीज है लेकिन इसे हम थोड़ा समझने की कोशिश करें कि यदि मैं गिनना गणितमाला के माध्यम से आरम्भ से कर रहा हूँ तो इसमें समस्या क्या है? मुझे उसमें गम्भीर अवधारणात्मक समस्या लगती है जिस पर लोग ध्यान नहीं देते।

वास्तविक जीवन में गिनते समय सबसे पहले तो आपको एक समूह अलग करना होता है कि मैं ये चीजें गिनूँगा और इसके बाहर की नहीं गिनूँगा। जब आप ये कहते हैं कि इस कमरे में कितने लोग हैं तो आप समूह अलग कर रहे हैं कि कमरे के भीतर के लोगों को गिनना है और बाहर वालों को नहीं। जब आप ये कहते हैं कि तुम्हारे बस्ते में कितनी किताबें हैं तो मैं बस्ते वाली गिनूँगा जो टेबल पर हैं उनको नहीं गिनूँगा। तो पहले तो एक समूह निर्धारित करना होता है।

फिर जब आप किसी चीज को गिनते हैं, मान लो मैंने आपको कंचे का ढेर दिया तो उसमें गतिशील ढंग से समूह का विभाजन हो रहा है। आपने एक गिना और उसको अलग खिसकाया, दूसरा, तीसरा गिना और उसे खिसकाया तो यहाँ खिसकाने का तो कोई क्रम नहीं है लेकिन संख्या बोलने का एक क्रम होगा जैसे एक दो, तीन….वगैरह। मैं एक के साथ एक को ही अनुबन्धित करूँगा और

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