दिगंतर विद्यालय में आकलन – सीखने-सिखाने के अहम हिस्से के तौर पर आकलनः एक सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में
In their reflection piece in Hindi, Pragya Srivastava and Hemant Sharma draw upon their experiences from an alternative school for underserved children to show us how assessments can seamlessly feed into learning processes.
आकलन – सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में
शिक्षा, इन्सानों में वांछित मूल्यों, अभिवृत्तियों और दक्षताओं के विकास की एक सायास प्रक्रिया है। चूंकि यह विकास केवल सीखने’ के माध्यम से हो सकता है: अतः शिक्षा में आवश्यक रूप से सिखाने और सीखने के लिए प्रयास किया जाता है। ‘प्रयास’ बिना उद्देश्य के नहीं होता, अतः शिक्षा के आवश्यक रूप से कुछ निश्चित उद्देश्य होते हैं, जो यह बताते हैं कि किन क्षमताओं को ‘विकसित करना है, और इस क्रम में क्या. सिखाया और सीखा जाना चाहिए, ताकि वांछित क्षमताओं को अर्जित किया जा सके। अतः शिक्षा के उद्देश्यों की अभिव्यक्ति में जो निहित है, यह है जिस दुनिया में हम रहते हैं उस दुनिया के बारे में कुछ समझ विकसित करना और साथ ही बाछित समाज में रहने के लिए मानव में कुछ विशेष प्रकार के कौशल और क्षमताओं का विकास करना। कक्षाओं में सीखने और सिखाने की प्रक्रियाएं दरअसल इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है। तो फिर यह सवाल उठना लाजिमी है कि यह कैसे सुनिक्षित हो कि ये शैक्षिक उद्देश्य वाकई पूरे हो रहे हैं?
सीखने सिखाने के अंतर्गत किसी भी सोची समझी (विचार. शील) गतिविधि के कुछ उद्देश्य होंगे, और उन उद्देश्यों की प्राप्ति में गतिविधि की सफलता या विफलता को देखने के लिए कुछ मानदंड और प्रक्रियाएं आवश्यक है। विच (Winch), फ्लू (Flew) का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि शिक्षा की प्रकृति में ‘शिक्षण’ और ‘सीखना’ अनिवार्य रूप से शामिल है और इसमें निहित है कि जो सिखाया जा रहा है, जिसे ज्ञान कहा जा सकता है, उस के. कुछ हिस्से में सीखने वाला महारत हासिल करें”। “लेकिन अगर कोई ईमानदारी से कुछ सीखने की कोशिश कर रहा है या कोई किसी को कुछ सिखाने की कोशिश कर रहा है, तो जरूरी है कि वे यह देखें कि इन उद्देश्यों में वे कितना और किस हद तक सफल हो रहे हैं। और जब तक वे इन सवालों के जवाब जानने के लिए कदम नहीं उठाते, वे यह दावा नहीं कर सकते कि वे अपने सीखने- सिखाने के प्रयासों में सफल या असफल होने के प्रति चिंतित या सचेत है। इस तरह के प्रयास और प्रक्रियाएं आकलन के संदर्भ में अमूमन देखी जाती हैं। विभिन्न नीतिगत दस्तावेज़ों और शैक्षिक विमर्शों में इन प्रक्रियाओं को आकलन या मूल्यां कन के नाम से अलग-अलग तरह से देखा और समझा गया है। कुछ बुनियादी आधारों, खासकर दार्शनिक और नैतिक आधार पर आकलन के विभिन्न तौर तरीकों की आलोचनाएँ और फिर उपयुक्त बदलाव भी हुए हैं, जो कि आज तक जारी हैं। आकलन की जरूरत और महत्व को एक सैद्धांतिक ढांचे के अंतर्गत देखने की कोशिश करें तो हम यह जान पाते हैं कि ‘आकलन’ से हमारा क्या तात्पर्य है और आकलन के उद्देश्य क्या होते हैं और क्या होने चाहिए।
आकलन या मूल्यांकन के हालांकि विविध उद्देश्य हो सकते हैं – ‘सतत मूल्यांकन’ जो कि शिक्षण प्रक्रिया में ही निहित होता है, और जो प्रत्येक सतर्क शिक्षक लगातार और हमेशा अपने शिक्षण के साथ करता रहता है, ‘ग्रेडिंग’ जिससे यह पता लगता है कि क्या और कितना सीखा गया है, ‘प्रमाण पत्र’ देना जो कि ग्रेडिंग की सार्वजनिक घोषणा है अभिभावकों आदि के लिए, बड़े पैमाने पर ‘मानकीकृत आकलन’ जिसका उद्देश्य यह समझना होता है कि सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली या विद्यालय बेहतर तरीके से काम कर रहे हैं या नहीं। मूल्यांकन के तरीके, सटीकता, वैधता और विश्वसनीयता मूल्यांकन के उद्देश्य के आधार पर बदल जाते हैं। इसलिए, शैक्षिक प्रयासों के संदर्भ में इसकी सीमाओं के साथ- -साथ उपयोगिता को समझना महत्वपूर्ण है। T
यह आलेख दिगंतर विद्यालय की शैक्षिक दृष्टि और उसमें निहित आकलन की समझ और तौर-तरीकों के बारे में है।
दिगंतर विद्यालय की शुरुआत
दिगंतर विद्यालय की शुरुआत के पीछे एक ऐसे विद्यालय की संकल्पना थी जहां बच्चों को स्वतन्त्रता के साथ स्वयं सीखने के अवसर हों, और जहां किसी भी प्रकार का दंड या भय न हो। बच्चे अपने आप सीखना सीखें और ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया को जान सकें। साथ ही एक ऐसी जगह जो बच्चों को एक ऐसे स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में विकसित होने में मदद करे जो जीवन पर्यंत सीखने के प्रति उत्सुक हो व स्वतंत्रचेता बन सकें। इसी संदर्भ में इस विद्यालय के पहले दो शिक्षकों द्वारा कर्नाटक राज्य में डेविड आसबॅरा के नीलबाग स्कूल में प्रशिक्षण प्राप्त किया गया – पहले शिक्षक ने लगभग 1 साल का प्रशिक्षण विद्यालय शुरू होने से पहले प्राप्त किया और दूसरे ने 6 महीने का प्रशिक्षण विद्यालय शुरू होने के बाद लिया। डेबिड से प्रशिक्षण लेने के बाद जयपुर जिले में 1978 में दिगंतर विद्यालय की शुरुआत की गई।
डेविड के दर्शन पर आरंभ किए गए इस विद्यालय ने समय के साथ शैक्षिक गतिविधियों और बच्चों के साथ अपने अनुभवों से एक शैक्षिक दृष्टि विकसित की और इस तरह एक व्यवस्थित और स्पष्ट सैद्धांतिक ढांचा भी आकार लेता गया। विद्यालय की शुरुआत के साथ ही आरंभिक शिक्षा में गुणवत्ता की तलाश के सवाल ने शैक्षिक विमर्शों में अहमियत हासिल की। इस तलाश ने शिक्षा के दर्शन के मूल सिद्धांतों जैसे लक्ष्य निर्धारण, शिक्षाक्रम, शिक्षण के तौर-तरीकों सहित स्कूल के संगठन, माता-पिता और समुदाय को शैक्षिक प्रक्रिया में भागीदारों के रूप में देखने की दिशा में उन्मुख किया।
दिगंतर विद्यालय की शैक्षिक दृष्टि
शैक्षिक उद्देश्य मानव प्रकृति के बारे में हमारे विचार, अच्छे मानवीय जीवन और वांछनीय समाज की हमारी संकल्पना को दर्शाते हैं। इसी सैद्धांतिक ढांचे को ध्यान में रखते हुए तार्किक रूप से किसी विद्यालय का स्वरूप निर्धारित होता है। किसी भी विद्यालय का संचालन और उसकी व्यवस्थाएं इसी ‘स्वरूप’ पर निर्भर करती है, स्वरूप तय होने में तमाम अन्य बातों के साथ दो मुख्य बातों का उल्लेख जरूरी है 1. हम कैसा समाज चाहते हैं या किस तरह के समाज की संकल्पना हमारे मन में है? 2. शिक्षा व सीखने को लेकर हमारी धारणाए क्या है?
एक इंसान (या बच्चे) के बारे में हमारी जो मान्यताएँ होती है, उनसे ऊपर के सवालों को दिशा मिलती है, और उनका असर विभिन्न स्तरों पर होने वाले शैक्षिक प्रयासों पर पड़ता है और इसमें आकलन भी अनिवार्य रूप से शामिल है। इस महत्वपू- र्ण बात को ध्यान में रखते हुए, दिगंतर विद्यालय, बच्चे और बचपन के बारे में अपनी धारणाओं को उचित और स्पष्ट ढंग से व्यक्त करने पर विशेष जोर देता है। विद्यालय मानता है कि हर बच्चा, स्वाभाविक रूप से समाज का एक मूल्यवान सदस्य है, और उसकी अपनी पहचान, गरिमा और स्वाभिमान है जो उसे विशिष्ट बनाती है। सभी मानते हैं कि हर बच्चे में अपनी गति से सीखने की नैसर्गिक क्षमता होती है। साथ ही यह भी कि बच्चे की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, उसके दृष्टिकोण और व्यक्तिगत अनुभवों के प्रति सम्मान सीखने और उसके सम्पूर्ण विकास के लिए महत्वपूर्ण है। बच्चों को एक सुरक्षित और स्नेहपूर्ण वाताबरण की आवश्यकता होती है, खासकर प्राथमिक स्तर पररा
कुछ सामान्य शिक्षण शास्त्रीय मान्यताएँ भी है जो इस प्रकार है:
- शिक्षण विधियाँ ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों के अनुभवों के आधार को बढ़ाएँ यह तभी हो सकता है जब वे नए अनुभव प्रदान करने के लिए बनाई गई परिस्थितियों व की जाने वाली गतिविधियों में स्वेच्छा से हिस्सा ले सकें।
- बच्चों की अर्जित समझ को आधार बना कर ही आगे बढ़ा जा सकता है। उससे कट कर, हट कर या उसे नकार कर आगे बढ़ना संभव नहीं है।
- शिक्षण विधियाँ ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों को सीखने की गति में स्वतन्त्रता दो|
- बच्चों में अपने आप काम करने की क्षमताओं तथा अभिवृत्तियों का विकास करना आवश्यक है। क्योंकि कुछ आरंभिक मदद करने और तरीके बताने के बाद उन्हें ‘अपने आप सीखना’ सिखाना एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है।
ये मूलभूत मान्यताएँ विद्यालय में सभी प्रकार की गतिविधियों के लिए मार्गदर्शिका के रूप में काम में ली जाती हैं। लोकतान्त्रिक दृ. ष्टिकोण से संगत इन मान्यताओं के अंतर्गत विद्यालय में सहयोग, जिम्मेदारी, न्याय और समानता जैसे लोकतान्त्रिक मूल्यों को बढ़ावा दिया जाता है। प्रत्येक बच्चे के मूल्यवान होने की बात को स्वीकार करते हुए विद्यालय में ऐसी प्रक्रियाएं मौजूद हैं जिनमें बच्चों के चिंतनशील संबाद के माध्यम से विवादों के समाधान को प्रोत्साहित किया जाता है। बच्चों को निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में भागीदारी देने से उन्हें अपने विचारों को प्रकट करने का अवसर देना भी इसमें शामिल है।
दिगंतर विद्यालय में सीखने-सिखाने की धावस्था
विद्यालय में सभी का यह मानना है कि प्रत्येक बच्चे की सीखने की गति अलग-अलग होती है क्योंकि प्रत्येक बच्चे की क्षमतायें एवं रुचियां भिन्न-भिन्न होती हैं। इसके अलावा किये जा रहे कार्य से प्रत्येक बच्चे का जुड़ाव भी हमेशा एक सा नहीं होता है। इन सभी चीजों का प्रभाव बच्चे के सीखने पर पड़ता है। इसके साथ ही एक बच्चे की सीखने की गति भी हमेशा समान नहीं रहती है। इस भिन्नता को स्वीकार करते हुये विद्यालय में प्रत्येक बच्चे को अपनी गति से सीखने की स्वतंत्रता है। अब यदि बच्चों और सीखने के प्रति यह दृष्टिकोण है तो फिर यह जानने के लिए कि बच्चे और शिक्षक अपने-अपने प्रयासों में कितना सफल हुए है, उसके लिए आकलन के पारंपरिक तरीके तो प्रभावी नहीं होंगे। दोनों में विरोधाभास होगा, मसलन –
- शिक्षण प्रक्रिया तो ‘अपनी गति से सीखने पर आधारित है, लेकिन क्या सीखा, इसके लिए साल के अंत में परीक्षा या ऐसा तरीका काम में लाया जा रहा है, जिसमें सभी बच्चों से एक ही प्रकार के प्रत्र पूछे जा रहे हैं।
- सीखने की गति की स्वतन्त्रता की बात तो विद्यालय के दर्शन में शामिल है, लेकिन शिक्षण की व्यवस्था ‘कक्षा आधारित’ है। मतलब, एक बच्चे के पास एक साल का ही समय है तयशुदा पाठ्यक्रम ‘सीखने’ के लिए यदि नहीं सीखा तो फिर उसी कक्षा में एक साल औरा सीख लिया तो अगली कक्षा में। वैसे इस मुद्दे पर भी बहुत विमर्श होते हैं कि बच्चे द्वारा किसी प्रश्न के सही जवाब दे देने भर से यह नहीं कहा जा सकता है कि अमुक बात या अवधारणा बच्चे ने सीख’ या समझ ली है। गणित के प्रत्रों में इसकी संभावना ज्यादा होती है।
- शिक्षण तो इस मान्यता पर आधारित है कि बच्चे की अर्जित समझ को आधार बना कर ही आगे बढ़ा जा सकता है, मतलब पहले क्या सीख लिया, इसकी जानकारी और विश्लेषण से आगे क्या करना है, ये तय होगा। लेकिन यदि आकलन इस तरह का है कि ऐसी कोई प्रक्रियाए ही नहीं है जिनसे रोजाना या लगातार पत्ता लगता रहे कि कौन सा बच्चा सीखने के किस स्तर पर है, तो आगे का रास्ता कैसे तय हो?
- मान्यता तो यह है कि शिक्षण की पूरी प्रक्रिया में बच्चे के सम्मान, दृष्टिकोण, गरिमा और उसके अनुभवों को जगह दी जाए और उसे अपने आप में एक मूल्यवान व्यक्ति के रूप में देखा जाए। लेकिन आकलन ऐसा जिसमें उसके विचारों/अनुभवों को जगह ही न दी जाए, जिसमें जो प्रश्न पूछे गए हैं, उनके आप के चाहे गए जवाब ‘न दे सकने’ या ‘न सीखने’ के कारण बच्चा फेल करार दे दिया जाए।
यहाँ इस मुद्दे पर भी ध्यान दिलाने की कोशिश है कि आकलन के तौर-तरीके बच्चों, शिक्षण और सीखने के बारे में हमारी या कहें कि हर स्तर पर शिक्षा व्यवस्था में निहित मान्यताओं को परिल- क्षित करते हैं। भले ही वे मान्यताएँ उजागर न हों या स्पष्ट तौर पर व्यक्त न की गई हों, आकलन के तौर-तरीकों से इनका संबंध तो है ही। तो फिर सवाल उठता है कि यदि शिक्षण शास्त्रीय मान्यताएँ वे है जो ऊपर वर्णित है, तो फिर तर्कसंगत और उससे सामंजस्य बैठाते हुए आकलन के तौर-तरीके क्या हो? दिगंतर विद्यालय मे आकलन उक्त सैद्धातिक पृष्ठभूमि में देखते हुए जो व्यवस्था लगभग 40 सालों से सफलतापूर्वक चल रही है, उसे समझने के लिए विद्यालय व्यवस्था की कुछ बातें जानना भी आवश्यक है- जैसे यह कि ‘कक्षाओं’ के बजाए यहाँ शिक्षण की व्यवस्था ‘समूह आधारित है। जब बच्चे विद्यालय में दाखिला लेते हैं तो उनका दाखिला पहले से बने समूहों में से किसी एक समूह में होता है, समूह में पहले से शामिल बच्चों की संख्या और प्रवेश सूची के आधार पर। प्राथमिक स्तर पर सामान्यतः एक समूह में बच्चों की उम्र में ज्यादा अंतर नहीं होता है।
एक समूह में एक शिक्षक के पास अधिकतम 30 बच्चे होते हैं, जिनके सीखने-सिखाने की पूरी जिम्मेदारी उस शिक्षक की होती है। प्राथमिक स्तर पर एक ही शिक्षक पूरे समय बच्चों के साथ उसी समूह में रहकर सभी विषयों पर काम करने में बच्चों की मदद करता है। दिगन्तर में काफी समय से किये जा रहे काम के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि बच्चों की संख्या यदि 30 तक हो तो शिक्षक हर बच्चे पर अलग-अलग ध्यान दे सकता है तथा वे अपनी गति से सीखते हुये आगे बढ़ सकते हैं। सब सीखें, इस बात का ध्यान तो रखा ही जाता है लेकिन सब एक साथ एक जैसा सीख जाएँ, इस पर जोर नहीं है। सीखने की गति की स्वतंत्रता को स्वीकार करते ही कुछ ही समय में बच्चे अलग-अलग स्तरों पर काम करने लगते हैं। अतः एक समूह में बच्चे सीखने के अलग-अलग स्तर पर होते हैं और इस आधार पर एक समूह में कई उपसमूह बना दिये जाते हैं। इन उपसमूहों में बच्चों की संख्या घटती-बढ़ती रहती है और ये समूह बच्चों की क्षमताओं एवं उनके द्वारा सीखी गई विषयवस्तु के आधार पर बनते-बिगड़ते रहते हैं। अर्थात् एक बच्चा पहले किसी एक समूह में. हो सकता है कुछ समय बाद किसी दूसरे समूह में। इसे इस प्रकार समझ सकते हैं – माना किसी समूह में 30 बच्चे है और उनके साथ गणित में कुछ सिखाने, जैसे 25 तक गिनने पर काम शुरू किया गया है। कुछ काम करने के बाद, हो सकता है कि 12 बच्चे 15 तक गिनना सीख पाये। और 10 बच्चे 25 तक गिनना सीख पाये। और 8 बच्चे संख्या पढ़ने-लिखने का काम आरंभ कर चुके हैं। अतः इस तरह इस समूह में 3 उपसमूह बन गये। प्रत्येक बच्चे को उनके रतरानुसार कार्य गिले ब्राकी पूर्ण रूप से जिगोवारी शिक्षक की होती है। संबन्धित विषयवस्तु सीखे जाने तक बच्चे उसी उपसमूह में रहेंगे। 25 तक गिनना जिन्होंने सीख लिया, वे अब दूसरे उपसमूह में जाएंगे जिसमें बच्चे संख्याओं को पढ़ना -लिखना सीख रहे हैं।
इस प्रकार प्रतिदिन के काम के आधार पर समूह बनते-बिगड़ते रहते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है प्रत्येक बच्चा अलग-अलग काम कर रहा है। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि समूह बनाये बिना शिक्षण कार्य नहीं कराया जा सकता। यह शिक्षक की सुविधा, काम व सामग्री की व्यवस्था पर निर्भर करता है।
ऊपर दी गई व्यवस्था जिसमें बच्चे अपनी गति से सीखते हुये आगे बढ़ रहे हैं, इसमें शिक्षक को सभी बच्चों पर अलग-अलग ध्यान देना पड़ेगा। यदि समूह में बच्चों की संख्या 30 से ज्यादा हो तो इसमें समस्या आती है। अतः सीखने में गति की स्वतंत्रता को स्वीकार करते हुए समूह का आकार इतना ही रखा जाता है।
विद्यालय स्तर पर वर्ष में एक बार शिक्षकों द्वारा अपने-अपने समूहों की वर्तमान स्थिति का विश्लेषण किया जाता है और समूहों का पुनर्गठन किया जाता है। अतः हर वर्ष नए शिक्षण-समूह बनते हैं। शिक्षक द्वारा बच्चों के साथ काम करते हुये कई बार ऐसा होता है कि समूह में बच्चों के स्तर में अंतर ज्यादा हो जाता है, जैसे 30 में से कुछ बच्चे ऐसे हैं जो आरंभिक स्तर पर ही हैं और कुछ ऐसे हो सकते हैं जो प्राथमिक स्तर की क्षमताओं को पूरी करने के आस-पास हों। बच्चों के सीखने के स्तर में इतना व्यापक अंतर हो जाने पर शिक्षक को सभी बच्चों के लिये योजना तैयार करके काम करने में काफी मेहनत करनी पड़ती है। अतः शिक्षकों द्वारा स्तर के इस अंतर को कम करने के लिये अलग-अलग बड़े समूहों से सीखने के आस-पास के स्तर के बच्चों को एक समूह में कर लिया जाता है जिसे विद्यालय में समूहों का पुनर्गठन कहते हैं। उदाहरण के लिए सभी समूहों से विद्यालय में कुल 300 बच्चे हैं उनमें 90 बच्चे ऐसे हैं जो पढ़ना-लिखना सीख गये हैं (अलग-अलग समूहों में), उन बच्चों के तीन अलग समूह बना लिये जाते हैं। यह बड़ा समूह होता है, इसी प्रकार अन्य समूह भी बच्चों के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखकर बना लिये जाते हैं जिनमें सीखने के स्तरों में अंतर कम हों। लेकिन यह सब शिक्षक की सुविधा और उसकी इच्छा पर निर्भर है। यदि कोई शिक्षक यह निर्णय ले कि वह अपने समूह का पुनर्गठन नहीं करना चाहता तथा अपने ही समूह में अलग-अलग स्तरों के बच्चों के साथ स्वयं ही कार्य करना पसंद करेगा तो इसके लिये वह स्वतंत्र होता है। कई बार बच्चे भी किसी और समूह में नहीं जाना चाहते और उनके इस निर्णय का भी सम्मान किया जाता है।
समूह में सीखने की इस व्यवस्था में बच्चों में स्वय सीखने पर अधिक जोर दिया जाता है, इसके लिये समूह में ऐसा माहौल तैयार किया जाता है जिसमें बच्चे स्वयं के प्रयासों से व अपने साथी बच्चों की मदद से सीखते हैं। सामग्री भी इसी प्रकार की काम में ली जाती है जो बच्चों को स्वतंत्र रूप से सीखने के अवसर दे।
क्या सीखा? आकलन (योजना और अंकन)
किसी भी विद्यालय की जवाबदेही होती है यह जानना कि बच्चे क्या, कितना और कैसे सीख रहे हैं। नहीं सीखे तो इसके कारण क्या हैं? इसके विस्तार में जाएँ तो सवाल कुछ इस तरह के होंगे: 1. यह कैसे पता चले कि जो सिखाने की कोशिश की गई है, वह बच्चा सीखा या नहीं ताकि आगे सिखाने की योजना बनाई जा सके। 2. यह कैसे पता चले कि बच्चा सीखने के किस स्तर पर है और इसके प्रमाण क्या हैं? 3. अभिभावकों, स्कूल प्रशासन और अन्य लोगों को कैसे पता चले कि बच्चे सीख रहे हैं और शिक्षा के उद्देश्य पूरे हो रहे हैं? 4. कैसे और किन आधारों पर कहा जाए कि विद्यालय ठीक काम कर रहा है या नहीं? शिक्षा के कर्म में इस तरह के सवाल आकलन के संदर्भ में उठना लाजिमी है, चाहे आकलन का स्वरूप और व्यवस्था जिस भी तरह की हो। दिगंतर विद्यालय में आकलन के तौर तरीके जानने के लिए समूहों में होने बाली शिक्षण प्रक्रिया को पूरी तरह जानना जरूरी है, क्योंकि यहाँ आकलन अलग से की जाने वाली प्रक्रिया नहीं बल्कि शिक्षण में ही निहित है, और शिक्षण प्रक्रिया का एक सहज, स्वाभाविक और अहम हिस्सा है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि समूह आधारित व्यवस्था में T सीखने की गति की स्वतन्त्रता के साथ एक समूह में सभी बच्चे विभिन्न स्तरों पर काम कर रहे हो सकते हैं। अतः शिक्षक को प्रतिदिन अपने बच्चों की गति एवं स्तर के अनुसार उनके लिये काम पहले से सोचना पड़ता है। यदि समूह में काम करते हुए इस बारे में सोचा जाए तो अन्य बच्चे खाली बैठे रह सकते हैं, समूह की व्यवस्था बिगड़ सकती है। साथ ही काम के लिए यदि किसी सामग्री की आवश्यकता हो तो तुरंत उसे उपलब्ध करवाना संभव नहीं भी हो सकता है। अतः शिक्षक द्वारा प्रतिदिन समूह में जाने से पहले प्रत्येक बच्चे के काम की योजना तैयार की जाती है जिसमें कुछ बातों का ध्यान रखा जाता है, जैसे: बच्चे क्या काम करेंगे? किस प्रकार करेंगे? काम से बच्चे क्या सीखेंगे? काम के दौरान कौन सी सामग्री लगेगी? समय नियोजन कैसे होगा? कार्य के दौरान कौन सा बच्चा अकेले काम कर सकता है और किसे मदद की जरूरत होगी? इस तैयारी से शिक्षक को यह भी जानने में मदद मिलती है कि अगले दिन किस उपसमूह में शिक्षक की मदद /उपस्थिति की ज्यादा जरूरत होगी और कहाँ बच्चे अकेले और एक-दूसरे की मदद से काम कर पाएंगे। यह शायद बहुत छोटी बात लगे लेकिन 30 बच्चों के समूह के के व्यवस्थित और प्रभावी संचालन के लिए योजना बनाने में यह जानकारी आवश्यक है। शिक्षक को बच्चों के साथ कब और कहाँ होना है, कहाँ नहीं, यह शिक्षण शास्त्र और आकलन का एक अहम हिस्सा है और विद्यालय की शिक्षण शास्त्रीय मान्यता के संगत भी क्योंकि बच्चों को ‘स्वयं सीखना सिखाना भी एक उद्देश्य है। नीचे दिया प्रारूप इस प्रक्रिया को समझने में मदद कर सकता है:
प्रतिदिन की योजना बनाने के लिये शिक्षक के पास कुछ जानका. रियाँ होना जरूरी है जैसे बच्चों का स्तर क्या है? किस बच्चे ने क्या और कितना सीखा? इस जानकारी को प्राप्त करने के लिये शिक्षकों द्वारा प्रतिदिन प्रत्येक बच्चे का समूह कार्य के दौरान अव. लोकन और उसके द्वारा किए जा रहे कार्यों को देखा और समझा जाता है। बाद में इस अवलोकन को व्यवस्थित तरीके से अपनी डायरी में दर्ज किया जाता है। दर्ज या अंकन करना इसलिए जरूरी है क्योंकि 30 बच्चों के प्रतिदिन के काम को याद रख पाना बहुत ही मुश्किल काम है। शिक्षक द्वारा प्रतिदिन का अंकन कुछ बिन्दुओं के आधार पर होता है किसी बच्चे ने क्या और कितना काम किया? कार्य करने के दौरान क्या उसे कुछ समस्या आई, यदि हाँ तो उसका कारण क्या रहा? किस अवधारणा को सीखने में बच्चे को दिक्कत आ रही है? किए जा रहे कार्यों के प्रति बच्चे की रुचि थी या नहीं? बच्चे ने स्वयं कार्य कियाया अन्य साथियों की मदद ली? बच्चे का व्यवहार कैसा था? ऑदि।
इस प्रकार प्रतिदिन प्रत्येक बच्चे के बारे में लिखित रिकार्ड होता है जिसमें बच्चे की सीखने की गति, कितना सीख चुका है इत्यादि का विस्तार से पता चलता है। इस प्रकार से किया गया अंकन बच्चों की सीखने की प्रक्रिया को सुचारु रूप से जारी रखने में मददगार होता है। इस प्रकार से सतत् व नियमित आकलन बिना किसी दबाब के किसी भी समय बच्चे की प्रगति को जानने में मदद करता है। इसके साथ ही बच्चों को सीखने में आ रही कठिनाई को पहचान कर ठीक समय पर मदंद कर पाने में भी
उपयोगी होता है। संक्षेप में कहा जाए तो दिगंतर विद्यालय में आकलन कोई अलग से की जाने वाली चीज नहीं है बल्कि वह शिक्षण प्रक्रिया का ही अभिन्न और जरूरी हिस्सा है।
शिक्षा व्यवस्था में जहां कई सालों से परीक्षा आधारित आकलन का बोलबाला है, जहां इसमें बच्चों को मिलने वाले अंकों और पास-फेल के परिणाम को जोरों शोरों से उजागर करने का रिवाज है, वहाँ दिगंतर विद्यालय में परीक्षा का और सीखने के परिणाम. स्वरूप अंक आदि देने की प्रथा का न होना, थोड़ा अजीब लग सकता है। कम ही सही, लेकिन जिन जगहों पर आकलन को शिक्षण की प्रक्रिया के एक जरूरी और स्वाभाविक हिस्से के तौर पर देखा जाता है, वहीं इसके महत्व और आनंद को समझा जा सकता है। दिगंतर विद्यालय में साल के अंत में या बीच में होने बाली परीक्षाओं की कोई जरूरत और जगह नहीं है। लेकिन यह तो जरूरी है कि हर बच्चे के सीखने की प्रगति का विवरण रखा जाए और उसे बच्चों और उनके अभिभावकों से भी साझा किया जाए। इसके लिए वर्ष में दो बार, 6 माह के अंतराल से, प्रत्येक बच्चे के बारे में एक लिखित प्रगति रिपोर्ट तैयार की जाती है जिसमें कुछ बातों के बारे में विस्तार से लिखा जाता है मसलन – बच्चों ने पिछले 6 माह की अवधि में किस विषय में क्या सीखा है? उपस्थिति, समय पालन आदि कैसा रहा है। इसमें बच्चे के व्यबहार, रुचियों और आदतों का ब्यौरा भी रखा जाता है। वि- द्यालय में लगातार हो रही विभिन्न गतिविधियों और कार्यकलापों के दौरान हुए अवलोकन और ऊपर वर्णित अंकन इस ब्यौरे का आधार होते हैं।
प्रत्येक दिन बच्चों के साथ समूह में काम खत्म करके बच्चों के जाने के बाद, शिक्षक कुछ समय पूरे दिन की गतिविधियों का विश्लेषण करते हैं और अपनी डायरी में नीचे दिये गए प्रारूप में हर बच्चे के बारे में अपने अवलोकन दर्ज करते हैं:
दिगंतर विद्यालय में सीखना सिर्फ किताबों और विषयों की विषय वस्तु तक ही सीमित नहीं है। ऐसे बहुत से अवसर हर विद्यालयों में लाजिमी है जहां बच्चों के बीच लड़ाई झगड़े होते हैं, एक-दूसरे की शिकायतें आदि भी शिक्षकों से की जाती है। दिगंतर विद्यालय में ऐसे मौकों और मुद्दों का भरपूर लाभ उठाया जाता है शिक्षकों और बच्चों द्वारा भी। एक लोकतान्त्रिक संस्कृति और वातावरण होने के कारण, शुरू से ही बच्चे आपस में और शिक्षकों के साथ बहुत ही सहज होते हैं। कई मुद्दों पर शिक्षकों की किसी बात/ विचार या व्यवहार से असहमति या आपत्ति जताने से बच्चे. कतराते नहीं है। बात यदि किसी नियम को मानने की है तो फिर वह सब पर लागू है जैसे समय पर आना, या फिर विद्यालय के प्रांगण की सफाई, या सभी को (शिक्षक सहित) नाम से बुलाना। लड़ाई झगड़े के मुद्दे जब बतौर शिकायत शिक्षक के सामने लाये जाते हैं तो हर पक्ष की बात सुनी जाती है और शिक्षक द्वारा कई बार कुछ सवालों द्वारा प्रयास होते हैं कि बच्चे एक दूसरे पर आरोप लगाने के दौरान भी तर्क करना सीखें। और बहुत बार इन मौकों पर भी शिक्षक बच्चों के व्यवहारों और अभिव्यक्ति के कौशलों, भाषा पर समझ आदि के बारे में अवलोकन कर रहे होते है। बहुत व्यवस्थित तो नहीं फिर भी इस तरह की बातचीत से भी बच्चों के व्यवहारों, अभिरुचियों, मूल्यों आदि के बारे में अंदाजा लग पता है और शिक्षक की डायरी में ये भी दर्ज हो पाते हैं। बहुत बार कुछ सिखाना मकसद न न भी हो लेकिन बातचीत और तर्कपूर्ण बहस के मौके प्रदान करना और दूसरे को सुनते हुए अपनी बात आराम से रखने का मौका देना बच्चे को यह संप्प्रेषित करता है कि हर बच्चा और उसका विचार सुनने योग्य हैं, अपने आप में सार्थक और महत्वपूर्ण है। इस प्रकार के आकलन के परिणामों के रूप में शिक्षकों को बच्चों में बहुत आत्म विश्वास नजर आता है। कभी कार्य ठीक नहीं होने पर वे हताश नहीं होते हैं, बल्कि इसे वे एक चुनौती मान कर उस पर पार पाने में लग जाते हैं। और इस प्रक्रिया के दौरान सीखने का सही मायने में आनंद प्राप्त करते हैं। शुरुआत से ही सीखने के लिए शिक्षक पर पूरी तरह निर्भरता न होने के कारण बच्चे स्वयं सीखने की ज़िम्मेदारी लेते हैं और कई बार शिक्षक के न होने पर मिल कर व्यवस्था बना कर समूह संचालन का कार्य भी करते हैं।
यदि हम यह मानते हैं कि शिक्षा के द्वारा समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों का बिकास किया जा सकता है जिसके अंतर्गत प्रतिस्पर्धा और आपसी द्वेष के बजाय सहयोग और सहानुभूति जैसे मूल्यों को बढ़ावा देना है तो फिर विद्यालयों की संस्कृति में इसे समाहित करते हुए, प्रयत्न करने होंगे कि सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं में भय या तनाव जैसे मौकों की कोई जगह न हो, क्योंकि भय के माहौल में सीखना तो बाधित होता ही है, साथ ही किसी इंसान को भयभीत करके कुछ करवानां नैतिक रूप से अस्वीकार्य भी है। यदि आकलन को सीखने की प्रक्रिया का सहज हिस्सा बनाया जाए तो सीखना स्वस्थ् परिस्थितियों में होता है।
आकलन के संदर्भ में इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को आप चाहें तो सतत और समग्र मूल्यांकन का एक प्रकार कह सकते हैं। लेकिन दिगंतर विद्यालय ने कोई नाम देने की खास परवाह किए बगैर इसे सीखने सिखाने की प्रक्रिया का अहम हिस्सा मानते हुए आरभ से ही यह तरीका अपनाया है और कुछ चुनौतियों के बावजूद नतीजे अच्छे भी रहे हैं।
संदर्भः
1. दिगतर विद्यालय का शिक्षा दर्शन और शिक्षाक्रम प्रपत्र, रोहित धनकर
2. C. Winch and J. Gingell, Philosophy of Education: The Key Concepts, Routledge, Oxon, (2008), p.13
3. शिक्षक की पुस्तक – भाषा, रोहित धनकर
4. शिक्षक डायरी, दिगंतर विद्यालय
5. आकलन प्रपत्र, दिगंतर विद्यालय
6. शिक्षा विमर्श, मई-जून, 2015
(इस लेख को लिखने के लिए दिगंतर विद्यालय के शिक्षकों द्वारा लिखे प्रपत्रों सहित दिगंतर संस्था के दस्तावेजों की मदद ली गई है।)
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