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क्या बिना बच्चों के किसी विद्यालय की कल्पना की जा सकती है? एक शिक्षिका के अनुभव

Rita Kumari, in her article, shares her experiences as a teacher of the processes of school shutdown and reopening in Bihar.

1 min read
Published On : 12 October 2021
Modified On : 21 November 2024
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कोरोना यह एक ऐसा शब्द है जिसे हमने पहले कभी नहीं को चुना था। इस बीमारी का पहला मामला चीन के बुहान शहर में मिला उसके बाद यह और भी देशों में तेजी से फैलने लगी। हमारा देश भी इसकी चपेट में आ गया। इसने बहुत ही तेजी से हमारे देश से राज्य में, राज्य से जिले में, और जिले से गाँव में पाँव पसार लिया। जब कोई बीमारी एक साथ बहुत से देशों और लोगों के बीच तेजी से फैलती है तो इसे ‘वैश्विक महामारी’ (pandemic) का दर्जा दिया जाता है इसीलिए कोरोना को वैश्विक महामारी घोषित किया गया।

मार्च 2020 की बात है। होली के शुभ अवसर पर हमारा विद्याह लय बन्द था और उसके बाद 21 दिनों के लिए पहली बार पूरे देश में लॉकडाउन लगा जिससे जो जहाँ था वहीं फंसकर रह गया। इस दौरान भारी संख्या में प्रवासी मजदूर दिल्ली, मुम्बई, उड़ीसा, आदि शहरों से पैदल ही अपने घरों की ओर चल दिए थे। उस समय चारों तरफ कोरोना की ही चर्चा थी। सभी लोग अपने-अपने घरों में कैद हो गए थे। दोस्तों से भी मिलना बन्द हो गया था। उस समय यही एहसास हो रहा था कि ये कैसी बीमारी है, जो लोगों को अपने ही घरों में कैद कर दे रही है। लोगों को अपनों से अजनबी की तरह-मुँह पर मास्क लगाकर दूर से ही बातें करनी पड़ रही थी।

जनवरी 2020 में शिक्षकों की हड़ताल के कारण वैसे भी विद्यालय में पठन-पाठन का कार्य प्रभावित हो गया था क्योंकि बच्चे तो आते थे पर पढ़ाई नहीं हो पा रही थी, लॉकडाउन में हालात और भी खराब हो गए। हमारे विद्यालय को क्वारंटीन सेंटर बनाया गया था, विद्यालय में बच्चों की जगह बाहर से आए हुए लोग रह रहे थे। सबसे बुरा तो हमें तब लगा जब 15 अगस्त 2020 को बच्चों की उपस्थिति के बिना ही झण्डा फहराना पड़ा। आजादी के बाद ऐसा शायद पहली बार हुआ था। 385 विद्यार्थियों वाले हमारे विद्यालय में उस दिन एक भी बच्चा नहीं था। इस सब की वजह कोरोना था।

इस दरमियान (कोरोनाकाल में) बच्चों की पढ़ाई सबसे ज्यादा बाधित हुई। ऑनलाइन क्लास तो चल रही थी लेकिन यह • सन्तोषजनक नहीं थी। बहुत से बच्चे इसमें शामिल नहीं हो पा रहे थे क्योंकि सरकारी विद्यालयों में गाँवों के बच्चे आते हैं और गाँव के घरों में स्मार्ट फोन, लैपटॉप की सुविधा नहीं होती। शहरों से लेकर गाँवों तक हर प्रकार का काम-धन्धा पूरी तरह ठप्प हो गया था। लोगों के पास आमदनी का कोई स्रोत नहीं बचा था। ऐसी स्थिति में जबकि बच्चों के माता-पिता अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उनसे यह अपेक्षा करना ही बेमानी था कि वे स्मार्टफोन खरीद पाएँगे और 150-200 रुपए इंटरनेट पैक भरवाने पर खर्च कर पाएँगे।

इस अवधि में एक शिक्षक के तौर पर मुझे भी अपने काम से सन्तुष्टि नहीं मिली। हम विद्यालय तो आ रहे थे लेकिन विद्यालय सूना था, न तो बच्चों के खिलखिलाते चेहरे नजर आते थे और न ही उनकी शरारतें और न ही उनका तोतली आवाज में अपने सहपाठी की शिकायत करना। ऐसे में विद्यालय में रहना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था। कभी-कभी तो हमें ऐसा लगता था कि ये बीमारी पता नहीं कब खत्म होगी? पता नहीं कब सब कुछ पहले की तरह सामान्य होगा और पता नहीं कब हँसते-चहकते हुए बच्चों से विद्यालय फिर से गुलजार होंगे?

धीरे-धीरे बीमारी का प्रसार थोड़ा कम हुआ और स्थिति थोड़ी सामान्य हुई। यह खबर आई कि विद्यालयों को सरकार के द्वारा * जारी किए गए दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए खोला जाएगा,. और विद्यालय खुल गए। मार्च 2021 में विद्यालय खुले और बच्चों की आवाज से मन खुशी से भर गया, पर विद्यालय खुले हुए अभी कुछ ही दिन हुए थे कि इस बीमारी की दूसरी लहर आ गई और विद्यालय फिर से बन्द हो गए। इस बार तो बीमारी का खौफ पहले से भी अधिक था क्योंकि मौतों का सिलसिला शुरू होने के साथ ही बहुत से परिचित लोगों के गुजर जाने की खबर भी आई। जब इसका प्रकोप कम हुआ और स्थिति सामान्य होने लगी तो सरकार के दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए अगस्त 2021 में विद्यालय पुनः खुल गए और हमें थोड़ी राहत मिली। सरकार ने शिक्षकों को भी कोरोना वारियर के रूप में देखा और हम सभी शिक्षकों का टीकाकरण सुनिश्चित करवाया।

कोरोना काल में बच्चों की पढ़ाई काफी बाधित हुई और बच्चों ‘का सीखना काफी प्रभावित हुआ। सीखने में आई इस कमी (learning gap) को दूर करने के लिए सरकार ने सभी शिक्षको को एक प्रशिक्षण देने का निर्णय किया और सभी शिक्षकों ने उस

प्रशिक्षण में भाग भी लिया। इसका नाम “कैच अप कोर्स” था। इस कोर्स से मुझे बच्चों के साथ क्लास लेने में मदद मिली और मैं केन्द्रित होकर बच्चों को पाठ्यक्रम पढ़ा पा रही हूँ। इसके साथ-साथ जिन बच्चों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है उनके लिए भी मैंने एक अलग प्रकार की योजना को इसमें शामिल किया है।

कोरोना के पश्चात विद्यालय खुलना बहुत चुनौती भरा था। बच्चे इस बात को लेकर उलझन में थे कि वे किस कक्षा में बैठें। हमने बच्चों को उनकी पुरानी कक्षा में ही बैठाया और उनके सीखने में आई कमियों (learning gaps) को दूर करने की कोशिश की। लम्बे समय तक स्कूल बन्द होने की वजह से बच्चों ने जो भी सीखा था उसे वे भूल गए थे। इस लम्बे अन्तराल के बाद बच्चों को उनके स्तर से आगे का सीखने में किस तरह मदद की जा सकती है, ये हम सबके लिए बहुत बड़ी चुनौती है। कोरोना के दौरान बच्चों को घर पर पढ़ाने वाला कोई नहीं था, वे अपनी मर्जी के हिसाब से घर पर रहते थे। स्कूल खुलने के बाद भी बच्चों की उपस्थिति बहुत कम है। जिन बच्चों ने स्कूल आना शुरू किया है वे भी नियमित स्कूल आने की बजाए कभी-कभी स्कूल आ रहे हैं। ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि उनकी स्कूल आने की आदत छूट गई है। अनुपस्थित बच्चों को स्कूल बुलाने के लिए स्कूल के प्रधानाध्यापक ने सामुदायिक बैठक की और बच्चों से स्कूल • आने के लिए अनुरोध किया। मैंने अपनी कक्षा के बच्चों को अनु- पस्थित बच्चों को स्कूल लाने के लिए प्रेरित किया। कुछ बच्चों ने तो स्कूल आना शुरू कर दिया है लेकिन शेष बच्चों को स्कूल में वापस बुलाने के लिए हमारी कोशिशें जारी हैं। मुझे आशा है कि धीरे-धीरे सभी बच्चे नियमित हो जाएँगे, इसके लिए हमारे स्कूल के सभी शिक्षक प्रयासरत हैं।

इस कोरोना काल के दौरान बहुत से बच्चों के घर की आर्थिक स्थिति भी खराब हो गई है और बड़े बच्चे पढ़ाई छोड़कर काम करने दूसरे शहरों में चले गए हैं। इनमें से कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो कोरोना से पहले आठवीं में पढ़ रहे थे और अब वे पढ़ाई छोड़कर काम करने लगे हैं। ऐसे बच्चों में लड़के और लड़कियाँ दोनों शामिल हैं।

अभी भी मन में डर तो रहता है क्योंकि जगह-जगह से तीसरी लहर की सम्भावनाओं के बारे में सुनने को मिलता है और जब ये सुनने को मिलता है कि तीसरी लहर का सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों पर पड़ेगा तो यह डर और भी बढ़ जाता है। पर डर की वजह से हम हाथ पर हाथ रखकर भी नहीं बैठ सकते इसलिए मैं कोशिश कर रही हूँ कि सभी सावधानियां बरतते हुए बच्चों को शिक्षित करने का कार्य जारी रख सकूँ।

प्रयोग’ संस्था गोपालगंज (बिहार) में बच्चों एवं शिक्षकों के साथ पुस्तकालय आधारित कार्य करती है। प्रत्येक विद्यालय में एक जीवन्त पुस्तकालय हो और बच्चों का किताबों से जुड़ाव हो, इसके लिए विद्यालय के शिक्षकों की मदद से हम ‘पढ़ने की संस्कृति’ (reading culture) विकसित करने के लिए प्रयासरत हैं। अच्छी बात यह है कि विद्यालय के शिक्षक भी किताब पढ़ने के सफर में बच्चों का साथ देते हैं, जिससे बच्चों को पढ़ने और समझने में सहूलियत महसूस होती है। इस पहल से न केवल अक्षर, शब्द और वाक्य को लेकर बच्चों की समझ मजबूत हो रही है बल्कि वे विविध प्रकार के बाल साहित्य से भी रूबरू हो रहे हैं।

कोविड के दौरान जब सरकारी विद्यालय लम्बे समय तक बन्द रहे तब भी हमने सामुदायिक पुस्तकालयों की मदद से किताबें पढ़ने का यह सफर जारी रखा। हमने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि किताब के अभाव में बच्चों के पढ़ने-समझने और सोचने की प्रक्रिया में कोई बाधा न आए। हमारी इस पहल से बच्चों के परिवार भी पढ़ने के लिए प्रेरित हो रहे हैं क्योंकि जब बच्चे किताबें अपने घर ले जाते हैं तो उनके भाई-बहन और परिवार के अन्य सदस्य भी उन किताबो को पढ़ते हैं। इससे हमें अपने प्रयास को जारी रखने के लिए प्रोत्साहन मिलता है।

हमारे इस कार्य में हमें शिक्षकों का भी बहुत सहयोग मिलता है और कोविड के दौरान उनके और बच्चों के सहयोग से ही हम सामुदायिक पुस्तकालयों की स्थापना कर पाए। हमारे प्रयासों में सहयोग करने वाली ऐसी ही एक शिक्षिका रीता कुमारी हैं, जो उत्क्रमित मध्य विद्यालय शेरपुर में पढ़ाती हैं। यह लेख कोविड के दौरान बतौर शिक्षिका उनके अनुभवों को दर्शाता है।

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Reeta Kumari
रीता कुमारी उत्क्रमित मध्य विद्यालय शेरपुर (सन्न 2014) में प्रखण्ड शिक्षिका के रूप में नियक्तु है। रीता कुमारी कक्षा 6 से 8 में सामाजिक विज्ञान विषय पढ़ाती है। उन्हें पुस्तकालय में बैठकर वहा की किताबों का अध्ययन करना बहुत अच्छा लगता है।
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