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उत्पादक काम, भाषा और ज्ञान

We are also carrying an edited excerpt of a 2011 lecture delivered by Prof Anil Sadgopal on the learnings from work done decades ago in Madhya Pradesh on rethinking the radical potential of Nai Taleem in practice.

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Published On : 17 August 2021
Modified On : 21 November 2024
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मैं जिस उत्पादक काम, भाषा और ज्ञान के शिक्षाशास्त्र की बात करने वाला हूँ, उसके पीछे तजुर्बा है; होशंगाबाद जिले के एक गांव में किये गए हमारे प्रयासों का | इस गाँव की आधी आबादी आदिवासी और दलित थी; १५% मुसलमान और बाकि आबादी दूसरी जातियों से थी | हमने इस गाँव में छः साल तक नयी तालीम के प्रयोग किये और इन्ही प्रयोगों के अनुभवों की कहानी मैं आपको सुना रहा हूँ |

आसपास के गाँवो के करीब १२ बच्चे इकठ्ठा हुए, परन्तु उस समय माहोल ऐसा नहीं था कि इनमे लड़कियां हो| मैं आपको १९७२ से १९७७ के बीच की बात सुना रहा हूँ | तो वो सारे लडके ही थे और वो ऐसे परिवारों से आये थे, जहां माता-पिता खेतिहर मजदुर थे या फिर बहुत गरीब किसान थे | उन्होंने सरकारी विद्यालयों से चौथी-पांचवी-छटवी तक पढ़ा था और उसके बाद विद्यालय की पढाई छोड़ दी थी |

काम ये था कि हमारे पास खेती है, और शिक्षक और बच्चे मिलकर एक समूह में खेती करेंगे | वहाँ गाय भी थी, तो बच्चो ने शिक्षको के साथ मिलकर गाय पाली, बढाई का काम भी सिखा और सिंचाई के पम्प की मरम्मत भी सीखी | सीखने का सिद्धांत ये था कि सारा काम खुद करेंगे और मिलकर करेंगे | और इसका जो उत्पाद होगा उसको बाजार तक ले जायेंगे, बेचेंगे और इन सबका हिसाब रखेंगे | इसके अलावा कोई पाठ्यपुस्तक नहीं थी, यह पाठ्यपुस्तक विहीन कार्यक्रम था |

जब शुरुवात हुयी तो हमने बच्चो से कहा- यहाँ पे छः-सात एकड़ जमींन है, और इसमे से एक एकड़ नाप लीजिये| उसी एक एकड़ में खेती करेंगे और अभी मूंगफल्ली उगाने का मौसम है, तो उसी की खेती करेंगे | तो बच्चो में बहस शुरू हो गयी की एक एकड़ कितना होता है | बच्चे पता लगाने में जुटे की एक एकड़ में कितने वर्ग गज होते है, तो उसकी पढाई शुरू हो गयी | बच्चो ने पूछा की ये वर्ग गज क्या होता है, तो रेखागणित की पढाई शुरू हो गयी | कागज के ऊपर समझ बन गयी, तो अब जमींन पे नापना था | कैसे नापे ? तो एक-दो दिन बाद बातचीत करके बच्चो ने मीटर से जमींन नापने का तय किया | और अब बॉस की कम्पास जैसे मशीन बनाई | उसको वहाँ पे पर्काल बोलते हैं | अंत में उन्होंने जमीन एक आयत के रूप में नापली |

अब कैसे काम किया उसे डायरी में लिखना था, परन्तु उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी, बुन्देलखंडी थी | तो सवाल खड़ा हुआ की किस भाषा में लिखेंगे | अंत में बच्चो ने तय किया की बुन्देलखंडी में लिखेंगे, जो आता है वही तो लिखेंगे | तो उनकी डायरी देवनागरी लिपि में मगर बुन्देलखंडी भाषा में लिखी जाने लगी | हम लोगो ने ये तय किया की हम समूह में बैठकर उन सबकी डायरी पढेंगे | उसमे चर्चा भी होगी, क्या सिखा क्या नहीं सिखा; मगर उनकी भाषा की गलतियाँ नहीं ढूढेंगे | क्यों कि उससे बच्चो में लिखने का जो सहज भाव पैदा हुआ है वो कुंठित हो जायेगा | व्याकरण, मात्रा, शब्दों का क्रम आदि छोड़कर सिर्फ बात समझ में आ रही है कि नहीं, सिर्फ उसपे जोर देंगे | सिखना जरुरी है, आपने नापा तो क्या सिखा | और शिक्षक की भूमिका थी समय-समय पर ऐसे प्रश्न उठाओ कि उनको और सोचना पड़ जाये |

तो बात आगे बढ़ी, मूंगफल्ली बोनी थी तो उन्होंने पूछा की कैसे बोनी है | हमने कहा हमको तो नहीं पता| फिर बच्चो ने जा के गावों के किसानो से पूछा की एक एकड़ जमीन में कितनी मूंगफल्ली बोनी है | बोने से पहले क्या काम था, मिट्टी की तैयारी कैसे करनी- वो सब तो गाँव के बच्चे थे तो काफी कुछ आता था, जो नहीं आता था पूछ लिया | और उन्होंने बाकायदा हल जोतकर जमीन तैयार करी और मूंगफल्ली बोई |

खाद डालने की बारी आई, तो उन्होंने पता लगाया की यूरिया डाली जाती है | हमने उनसे पूछा की क्यों डाली जाती है, उसमे क्या होता है, उसको डालने से क्या फायदा है | उनको पता नहीं था | फिर उन्होंने जाकर किसानो से पूछा | मगर उनको भी पता नहीं था | तो पता नहीं चलने पर, उन्होंने निर्णय लिया की वो ब्लाक के कृषि विस्तार अधिकारी (ए. इ. ओ.) से बात करने जायेंगे | जब वो सब पूछने गए तो चपरासी ने रोका और पूछा की तुम हो कौन | उन्होंने कहा की हम विद्यार्थी है | फिर उसने कहा की तो स्कूल जाओ, यहाँ क्या काम | तो उन्होंने कहा की हम तो ए. इ. ओ. साहब से मिलकर ही जायेगे | चपरासी ने मिलने नहीं दिया तो वे रो कर लौट आये |

उसके बाद उन्होंने फैसला किया की दोबारा जायेंगे और इस बार चपरासी से बिना पूंछे अन्दर घुस जायेंगे | अगले दिन दस विद्यार्थी बिना पूंछे ऑफिस के अन्दर घुस गए | ए. इ. ओ. के सामने कहा की साहब हमारे बात का जवाब दीजिये, हम कुछ पूछने आये है | फिर अपना सवाल उनके सामने पेश किया | सवाल सुनकर ए. इ. ओ. ने कहा की तुमको यूरिया डालने से मतलब है या फिर यह जानने में की यूरिया से क्या होता है | तो बच्चो ने कहा कि हम तो तब डालेंगे जब मालूम पड़ेगा के उसमे क्या होता है | तो उसने कहा की हमारे पास टाइम नहीं है, यह छपी हुयी सरकारी पुस्तिका है, इसे ले जाओ | तो हिंदी में छपी हुयी एक गाइडलाइन ले आये और उसको पढ़ा | उसमे लिखा था कि यूरिया में नाइट्रोजन होता है | तो उनको हमने बोला की दसवी कक्षा की रसायन शास्त्र की किताब खोलो, और फिर केमेस्ट्री का सबक चालू हो गया |

सिद्धांत क्या है इस शिक्षाशास्त्र का ? बच्चे जब-जब उत्पादक काम में जिस मुकाम पर पहुचंगे, उस मुकाम पे जो प्रश्न उठेगा, जो स्वाभाविक होगा, उत्पादक काम से जुड़ा हुआ होगा, उस पर वह पढाई करेंगे, पुस्तक पढेंगे | तो नाइट्रोजन क्या है, सल्फर क्या है, पोटाशियम क्या है- उन सब की चर्चा हुई और जो वर्गीकरण टेबल है, उसकी भी बात छिड़ी | तो खेत में यूरिया डाल दिया और यहाँ पढाई शुरू हो गयी कि अलग- अलग तत्व क्या होते हैं, उनमे क्या फर्क है; जितना पढ़ना उस समय जरुरी था | अभी केवल दोस्ती हो रही थी रसायन शास्त्र की वर्गीकरण तालिका से |

मूंगफल्ली जब बड़ी हुयी तो उसके निचे से एक फुल जैसा निकला, उसकी शाखा मुड़ी और वापस मिट्टी में चली गयी | यह गाँव के बच्चे जानते थे, मगर एक बच्चे ने पूछ लिया की यह क्या है, ये क्या चीज है | हमने कहा कि नहीं मालूम, पता करो | तो उन्होंने वनस्पति शास्त्र की किताबे खोली | दसवी- ग्यारवीं-बारहवीं कि किताब खोली; उसमे उत्तर नहीं मिला | फिर हमने कहा किसी बड़ी पुस्तकालय जाओ | दो-तीन बच्चो को शहर के बड़े पुस्तकालय भेजा गया | वहाँ पे भी उनको उस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला | फिर हमने उनसे कहा की तुमने बहुत ढून्ढ लिया, आओ बात करे की फूल क्या है | और फिर बॉटनी का सबक शुरू हो गया |

पढ़ते-पढ़ते और काम करते-करते मूंगफल्ली की फसल तैयार हो गयी और उसको काटा गया और सुखाया गया| मूंगफल्ली को बेचने का टाइम आया | अब बहुत बिकट सवाल आ गया | मूंगफल्ली बेचेंगे तो जितना हमने खर्च किया, जिसका हिसाब रखा है, उतना पैसा वापस होगा की नहीं होगा | बेचेंगे तो पैसा वापस आएगा की नहीं | तो तब बेचेंगे जब अच्छा दाम मिलेगा | तो कैसे मालूम करेंगे की अच्छा दाम कब मिलेगा | तो वे बाजार में जा कर पूछ कर आ गए | उतने में तो घाटा हो जायेगा, तो सोचा की इंतजार करेंगे, दाम जब बढ़ेगा तब बेचेंगे | तो उन्होंने सोचा की हर शुक्रवार जब बाज़ार लगता था, वहाँ जा के दाम का पता लगायेंगे| तो हमने उनसे पूछा की कैसे पता लगाओगे की दाम बढ़ने वाला है कि घटने वाला है | यह तो मालूम नहीं है; तो उनको ग्राफ बनाना सिखाया गया | ग्राफ क्या होता है, ग्राफ की X-एक्सिस और Y- एक्सिस कैसे बनती है और कैसे हर शुक्रवार का आकड़ा एक ग्राफ के रूप में देखा जा सकता है | ग्राफ में बढ़ते हुए दाम का जो स्लोप है, वह कम हो रहा है, तो दाम और तेजी से नहीं बढ़ने वाले, अब समय वह आ रहा है जब हम बेच दे, नहीं तो घाटे में चले जायेंगे | ये सब कैसे तय किया जाता है ग्राफ देखकर, ये सब बच्चो ने अपने से किया | जो ग्राफ बनाने का काम ग्यारवीं- बारहवीं के छात्र नहीं कर पाते थे, जबकि वह उनके पाठ्यक्रम में था; इन बच्चो ने वही ग्राफ ग्यारवीं- बारहवीं किये बिना खेत के साथ सिख लिया | ग्राफ का स्लोप नापना भी सिख लिया |

रेखागणित, बीजगणित, रसायन शास्त्र यह सब चल ही रहा था कि अब सामाजिक विज्ञान भी आ गया | एक बच्चे ने एक दिन पूछ लिया सामूहिक बैठक में, अरे यह बताइए की दाम काहे को इतना बढ़ जाता है और कम हो जाता है | एक बार जो दाम तय हो जाये तो वही क्यों नहीं ठहरता | तो बातचीत शुरू हुयी की अचानक इस बाजार में बहुत सारी मूंगफल्ली आ जाये तो दाम बढेगा की घटेगा | तो पूर्ति और मांग इनके क्या रिश्ते होंगे, उसके ऊपर बातचीत हुयी | उससे एक सिद्धांत निकाला मांग और पूर्ति का, डिमांड और सप्लाई का |

तो फिर बच्चो ने पूछा की, इतनी मूंगफल्ली कहाँ से आती है । तो पता करो मूंगफल्ली कहाँ पर उगाई जाती है हिन्दुस्तान में । फिर भूगोल की किताब खोली गयी, नक्शा खोला गया । तो पता चला गुजरात में बहुत मूंगफल्ली उगती है । तो यह है गुजरात । कितना दूर है हमारे गाँव से ।मालूम नहीं | तो नापो | हमारा यह छोटा सा गाँव होशंगाबाद जिले के एक सुदूर ब्लाक में है, तो यहाँ से गुजरात की दुरी कितनी होगी | तो यहाँ से बड़ोदा (जो गुजरात का एक शहर है) तक की दुरी नापो | पहले सीधी लाइन में नापो, बाद में रेलगाड़ी से जाने का रास्ता भी नाप लो | तो कैसे नापे | यहाँ पेज पे तो एक इंच की ही दुरी है | तो हमें कैसे मालूम पडेगा की बड़ोदा कितनी दूर है । तो भाई ऊपर क्या है नक़्शे में । अरे यह तो देखा ही नहीं हमने अब तक । ये तो पैमाना दिया हुआ है, वहाँ पर- ये तो स्केल है | भूगोल पढ़ने वाले काफी वरिष्ट विद्यार्थी भी नहीं जानते स्केल का उपयोग- वो जो स्केल है नक़्शे में उसका उपयोग कैसे करना है |

तो बच्चो ने स्केल देखा नक़्शे में; हाँ स्केल तो है, उसका क्या करेंगे ? अब खुद ही ढून्ढ लिया उन्होंने – अकल इतनी तेज हो गयी थी | अगर स्केल इतना लम्बा है तो उसका मतलब है की इतनी दुरी इतनी किलोमीटर में हो जाती है | उन्होंने तुरंत स्केल निकला, अब तो स्केल का उपयोग करना, सीधी लाइन खींचना सब सिख गए थे | और धागे से भी नापना सिख गए थे; तो उन्होंने नापा और कहा बड़ोदा इतनी किलोमीटर दूर है | अरे ये तो बहुत दूर है, हम गाँव से यहाँ तक चलके आते है तो आधे घंटे में चलके आ जाते है | बड़ोदा जाने के लिए कितने दिन लग जायेंगे | मतलब पदयात्रा करे तो कितने दिन लगेंगे ? रेल यात्रा करेंगे तो कितना टाइम लगेगा ? रेल तो इटारसी से जाना पड़ेगा, फिर नक्शा ढूंडा | रेलवे टाईमटेबल देखना सिख लिया |

अब भूगोल की भी जानकारी मिल गयी | रास्ते में कौन-कौन सी नदियाँ आती हैं ? क्या सिर्फ मैदान से ही जा रहे है ? देखो नक़्शे में एकाध नदियाँ बनी हुयी है | ये कौन-कौन सी नदियाँ है उनका नाम पता करो | उन नदियों को पार करना पड़ेगा, वहाँ पे पुल बना है की नहीं ? ये कैसे पता चलेगा ? नक़्शे पे पुल दिखाया है की नहीं ? कभी दिखाया है और कभी नहीं दिखाया है | ट्रेन जाती है तो पुल तो होगा ! तो एक बड़ा नक्शा लाओ रेल्वे वालो का | तो नक़्शे ढूंढे गए, पूल ढूंडा गया, कहाँ-कहाँ पे पूल होगा, रास्ते कहाँ होंगे, जाने का ये सारा तय हुआ | भूगोल का अध्ययन तो खूब बढ़िया चला, अर्थशास्त्र का भी चला, गणित भी साथ-साथ चला, और रसायन शास्त्र का भी साथ-साथ चला |

जो सबसे बड़ी बात थी, जिसपे उनको सबसे बड़ा गर्व था कि ए. इ. ओ. साहब के दफ्तर में हम बिना पूछे जा सकते है | अब कोई नहीं रोक सकता हमें | और उन्होंने यह भी तय कर लिया की ए. इ. ओ. साहब को आता कुछ नहीं है | रुतबा तो बड़ा है उनका, पर जानते कुछ नहीं है | हम जब सवाल पूछते है जा कर, तो वे बोलते है कि खुद ही पढ़ लो ये वाली चीज इसमे है | और हर बार वैसे ही करते है | अब हम उनसे ज्यादा जानने लग गए है | अब जाते है ए. इ. ओ. साहब के पास और पूछते है, कि साहब आप बता सकते है नाइट्रोजन क्या होता है, हमको पता है |

अब हिम्मत आ गयी | एक राजनैतिक हिम्मत पैदा होने लगी है, कि अब किसी से भी बात कर सकते है; अब डर नहीं है | यह शिक्षा का ही हिस्सा है, कि गरीब बच्चो का डर दूर होने लगा | और अब आगे कहानी सुनाने की जरुरत नहीं है | ठीक यही प्रक्रिया गाय पालने में, दूध दोहने में, और बढाई के साथ काम करने में थी | बढाई के साथ काम करने में तो गजब की सिखाई है, गजब की | वह तो इतनी तेज होती है, कभी तिकोना कट रहा है, कभी तो चौकोना कट रहा है, कभी रंदा लग रहा है, उसमे कौनसी लकड़ी है, ये सब गजब की सिखाई है |

और बढाई तो बहुत जानता है| लकड़ी को देखते ही बोलता है की यह तो सागोन की है, यह तो शीशम की है, यह ख़राब आम की लकड़ी है, इससे काम नहीं चलेगा इस काम के लिए | कुर्सी में ये लकड़ी लगेगी, तखत में ये लकड़ी लगेगी | बढाई गजब का शिक्षक है, ये देख लिया हमने | उन बच्चो को लगता था, यह तो निरक्षर है, इसको क्या मालूम ! तो वह निरक्षर बढाई कितना जनता है | वह जानता है की लकड़ी किस- किस जगह से आती है, कौन सी टाल पे मिलेगी, किस जंगल से निकलती है, उसको सब मालूम था | और उसको ये भी मालूम था लकड़ी देख के, कि कितनी वर्षो की उम्र होगी पेड़ की जहाँ से यह काटी गयी है | उसे रिंग गिननी आती थी |

वह था निरक्षर बढाई, मगर बहुत कुछ जानता था और बच्चो को सिखाने लगा | उसको मकान बनाना था | उसने पूछा बच्चो से, तुम मकान बनाना सीखोगे मेरे से ? बच्चो ने कहा हाँ ! फिर वह छत बनाने लगे लकड़ी की | ये सारा हम सबने सिखा | बच्चो ने तो सिखा ही, हमने तो उनसे ज्यादा सिख लिया |

हमारे बीच एक समूह की भावना बन गयी थी | आपस में बहस होती थी, झगड़े भी होते थे, और लडाईयां भी होती थी | इतना सब काम करते हुए ये कहकर की उसने तो कामचोरी की है; कई बार आपस में बातचीत बंद कर देते थे | ये रात को सो जाते है, सारी सिंचाई तो हम करते रहते है, वह तो कुछ नहीं करते | तो फिर मिलके तय करो कि, जो काम नहीं करेगा उसके साथ क्या करना होगा | तो फिर मिलकर आपस में तय करते थे की क्या करना होगा |

यहाँ तक तो गाड़ी बहुत सुन्दर चली और बहुत मजा आया | यह पांच साल-साढ़े पांच साल का प्रयोग था | बहुत कुछ बच्चो ने सिख लिया | एक दिन बच्चो ने सोचा की हम पड़ोस के गाँव मेले में जायेंगे | तो बच्चो ने अपना फाउंटेन पेन पाकिट में लगाया, स्केल भी रखी, नोटबुक कुर्ते के जेब में डाली और बड़े शान से मेला देखने गए | जब मेला देख रहे थे, तो गाँव का सामंत- ऊँची जात का एक सामंत जिसका पुरे गाँव पर कब्ज़ा था; उस सामंत का लड़का आया | उन बच्चो को देखा की जेब में फाउंटेन पेन और स्केल रख कर के घूम रहे हैं और मेले में मज़े कर रहे हैं । वह उनके पास गया और कहा की तुम्हारी इतनी हिम्मत की जेब में फाउंटेन पेन रख के चलोगे तुम ? और उनका फाउंटेन पेन छीन लिया, सब बच्चो का छीन लिया ।

रोते हुए बच्चे वापस आ गए । हमें बोला की फाउंटेन पेन छीन ली हमारी । तुम क्या करते रहे ? हम क्या करते, इतना ताकतवर आदमी है वह । उसका तो शरीर भी बड़ा है और उसकी ताकत भी बहुत बड़ी है । हम क्या करते ? तब तो ठीक है, अगर ताकत के सामने झुक गए हो तो तुम्हारा फाउंटेन पेन छीना जाएगा, हर बार छीना जाएगा । पर छीना क्यों । फिर तय हुआ, छिना क्यों कि अब हम पढ़ लिख रहे है | हममे बोलने की क्षमता आ गयी है अब । औकात बढ़ रही है हम गरीब लोगो की । इससे सामंत घबरा रहा है । तो क्या करना होगा ? फिर तय हुआ कि मिलकर सामंत के घर जाएंगे और बोलेंगे की अपने बेटे को बाहार भेजो, हम उससे अपनी फाउंटेन पेन वापस मागेंगे । और गए, लड़े और अपनी फाउंटेन पेन वापस ले के आ गये । और खूब ख़ुशी में नाच गाना किया की उनको फाउंटेन पेन वापस मिल गया । एक राजनितिक सत्ता की लड़ाई जीती । समीकरण बदलना सिखा ।

गाना गाते थे, गाने लिखते थे । खुद गाने बनाते थे । बहुत कुछ सीख लिया उन्होंने । थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी सीखने लगे । खूब मज़ा आने लगा । पांच-साढ़े पांच साल की मजेदार कहानी अभी तक लिखी नहीं गयी है कभी; कि काम से कैसे सिखा जाए और भाषा की इसमें क्या भूमिका हो । वह अंत में हिंदी भी बढिया लिखने लगे, बीना सिखाए हुए । क्यों की इतना पढ़ते थे किताबों को, इतना ज्यादा पढ़ते थे, की अपने आप उनको हिंदी भी आने लगी । और बुन्देलखंडी कब हिंदी में बदल गयी यह हमें याद नहीं ।

कहानी ख़त्म हो रही है । दिवास्वप्न ख़त्म होता है बड़े अजीब ढंग से, जो हमने कभी सोचा नहीं था । इन बच्चो में एक विकार आ गया । धीरे-धीरे देखा के विकार क्या आ गया ? उनमे बहुत अहंकार पैदा हो गया, कि यह बाजू के स्कुल में जाने वाले सब बच्चो से तो हम ज़्यादा जानते हैं । जो हाई स्कुल में बच्चे पढ़ते हैं उनसे ज्यादा जानते हैं, किसानो से ज्यादा जानते हैं, अफसरों से ज्यादा जानते हैं, और यहाँ तक की अपने मा-बाप से भी ज्यादा जानते हैं । यह अहंकार पैदा हो गया । जानते नहीं थे अपने मा-बाप से ज्यादा । मगर यह अहंकार पैदा हो गया । बहुत कोशिश करी हमने नियंत्रण करने की उनको, थोड़ा समझाने की । मगर नहीं समझा पाए ।

वे जानते तो बहुत थे, मगर इतनी ज़ल्दी एक छोटे से समूह में ज्ञान अहंकार की ओर ले जाता है, उसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी, सोचा भी नहीं था । और धीरे-धीरे इस अहंकार ने वह रूप लिया, जो हम कभी नहीं चाहते थे, सोचा भी नहीं था; कि वह गांव वालों से कटके रहने लगे, दूर रहने लगे, की गांव वालों को क्या आता है, हम सब कुछ तो जान गए । उनके और गांव वालों के बीच में; और उनके और उनके परिवार के बीच में दूरी बढ़ने लगी ।

हमारे यहाँ तो एक बड़ा संकट आ गया । अरे यह क्या हो गया । इसकी तो कभी गांधीजी ने बात नहीं की थी। हमको पता नहीं था कि ऐसा हो जाएगा । अंत में उनके मा-बाप को बुलाया गया । मा-बाप ने कहा, हाँ ये हम लोगों से बहुत कम बात करते हैं, घर आते हैं, खाना खा के भाग जाते हैं, कि बहुत काम है वहाँ पे गाय का, बढाई का, गाय पालने का और बहुत काम है; हमको इधर जाना है, उधर जाना है । तो हम लोगों से बड़ी कम बात होती है । फिर माँ बाप के साथ बैठ कर उन बच्चों की मीटिंगे हुई, कई मीटिंगे हुई । फिर बच्चो ने बहुत धीरे-धीरे समझा की यह हमारी गलतफैमी थी; मा-बाप से तो ज्यादा हम नहीं जान सकते । यह बात सही है । हम कुछ बाते जानते हैं जो मा-बाप नहीं जानते । मगर अंत में मा-बाप बहुत कुछ जानते हैं । हमें पता है । मा- बाप ने कहा अब बहुत हुआ यह बला प्रयोग, अब हमारे बच्चो को कहीं काम पे लगवा दीजिए । और ख़त्म कीजिए यह प्रयोग । तो उनको अलग जगह में काम पे लगाया गया ।

यह विश्लेषण हमारे यहाँ एक लम्बे अरसे तक चलता रहा की यह सब हुआ कैसे । और क्यों हो गया । जो अच्छा हुआ वह देख लिया और उसका यह अंतिम हिस्सा भी देख लिया । इस दिवास्वप्न से हमने एक बहुत महत्वपूर्ण बात सीखी- कि जब आप ऐसे किसी क्रन्तिकारी शिक्षाशास्त्र का प्रयोग बाकी सारी व्यवस्थाओं से हट कर अलग से करते हैं, चाहे वह कितना ही अच्छा प्रयोग क्यों न हो, उसमे यह संभावना हमेशा रहती है की वह समाज की आम प्रक्रियाओं से हट कर होता है ।

जहां पर बाकी सब सरकारी स्कूलों में बच्चे जाते थे पास के इलाके से, वहाँ के बच्चे तो ऐसा नहीं कर रहे हैं । वह तो ऐसे ही पढ़ते थे जैसे हर कोई पढ़ते थे । यहाँ पर तो कुछ अद्भूत काम हो रहा है, जिसमे बाकी बच्चे शामिल नहीं है । उन बच्चों की सिखने की गति और क्या सीखते हैं, उन सब में फर्क था इन बच्चों से । वहाँ तो बात करने की छूट नहीं थी, सवाल पूछने की छूट नहीं थी। वह अपने शिक्षक से कोई बहस नहीं कर सकते थे । यहाँ पर तो हमारे मास्टर लोग हमारे साथ सब काम करते हैं – खेती करते हैं, फावड़ा उठाते हैं ।

तो समझ आया, परिवर्तन लाना है तो आप अगर आम सरकारी स्कुल व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं ला रहे हैं, अलग हटके एक प्रयोग कर रहे हैं, उसमे कई प्रकार के अनापेक्षित, बिना सोचे हुए कई प्रकार के विकारों की आने की संभावना है । और वह एक व्यवस्था से हट कर काम करने के कारण से होगी । इसलिए हमें व्यवस्था के अन्दर घुस कर ही परिवर्तन लाना है और उसको बदलना है । यह हम लोगों ने निर्णय किया । यह गलत हो सकता है । यह १९७७ का निर्णय है। मगर उत्पादक काम का शिक्षाशास्त्र हम लोगों ने सिखा।

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Anil Sadgopal
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