Please fill out the required fields below

Please enable JavaScript in your browser to complete this form.
Checkboxes

स्कूल को बच्चों के अनरूप ढुालनेका एक उदाहरण – जीवन शिक्षा पहल

In their essay, Brajesh and Savita Sohit share experiences of running an inclusive educational institution for children who have suffered from marginalization and exclusion on multiple counts.

1 min read
Published On : 20 November 2024
Modified On : 21 November 2024
Share
Listen

मुस्कान एक गैर सरकारी संस्था है जो ‘जीवन शिक्षा पहल’ नामक एक नवाचारी स्कूल का संचालन कर रही है। यह स्कूल उन बच्चों के लिए संचालित किया जा रहा है जो विभिन्न सामाजिक व राजनैतिक कारणों से स्कूल से छूट रहे हैं।

स्कूल में आनेवाले बच्चे भोपाल के कोटरा और एमपी नगर की बस्तियों में रहनेवाले मुख्यतः आदिवासी, दलित और अतिवंचित समुदायों के हैं। इन बस्तियों में जरूरत की मूलभूत सुविधाएँ जैसे— पानी, बिजली, शौचालय भी मुहैया नहीं हैं। लोग शौच के लिए खुले में जाते हैं। घर कच्चे-पक्के हैं, कहीं पट्टे हैं तो कहीं नहीं हैं। बच्चों के पालक दिहाड़ी मजदूरी या कबाड़ चुनने और अन्य ऐसे धन्धों में जुड़े हैं जो कि उनकी अस्थिर दैनिक कमाई के साधन हैं। दिहाड़ी मजदूरी के लिए पीठे (लेबर पॉइन्ट) पर जाकर काम की तलाश करना उनकी रोज सुबह की दिनचर्या का हिस्सा है। उन्हें कभी काम मिलता है तो कभी नहीं मिलता।

इस अस्थायीपन के चलते कई परिवारों के बच्चों के लिए नियमित चलने वाले स्कूलों में पढ़ना मुश्किल होता है। बच्चों का अधिकाँश समय खुद कमाई के जुगाड़ में, अपनी बसाहटों के आस-पास खेलते हुए या घर के कामों, जैसे— पानी भरने, चूल्हे के लिए लकड़ी ढूँढने, इत्यादि में जाता है। आधे से ज्यादा बच्चे कबाड़ बीनते हैं। बच्चे परिवार की आमदनी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

प्रारम्भिक वर्षों में किए गए प्रयास

प्रारम्भिक वर्षां में हम बच्चों को बस्ती में ही पढ़ाकर उन्हें मुख्यधारा के स्कूलों के लिए तैयार करते थे; जब बच्चे अपनी उम्र अनुसार स्कूली कक्षा के लिए तैयार हो जाते थे (जिसमें बहुत वक्त नहीं लगता था) तो हम बच्चों का स्कूलों में दाखिला करवा देते थे। स्कूल जाए बिना भी बच्चे एक साल में ही तीसरी और चौथी के स्तर तक की पढ़ाई पूरी कर लेते थे। सरकारी और प्राइवेट दोनों ही प्रकार के स्कूलों में बच्चों को दाखिल कराया गया। स्कूल में बच्चे खुश और सहज महसूस करें यह सुनिश्चित करने के लिए मुस्कान और बच्चों के परिवारों की ओर से बहुत कोशिशें की गईं। माता-पिता की ओर से की गई कोशिशों में बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजना, उनके लिए टिफिन तैयार करना, सीमित आमदनी के बावजूद स्कूल के खर्चों को पूरा करना शामिल था। बच्चे मुस्कान के अनौपचारिक केन्द्रों में स्कूल के पहले या बाद आकर कक्षा की पाठ्यचर्या पूरी करते थे। इन प्रयासों के बावजूद बच्चे स्कूलों से पूरी तरह सहज नहीं हुए थे। स्कूल जाने की शुरुआती खुशी जल्द ही स्कूल से भागने में बदल गई थी। कई बच्चे स्कूल में टिक नहीं पा रहे थे। जिन स्कूलों में बच्चे टिक रहे था वहाँ बच्चों को स्कूल से मिल रहे अनुभव को शिक्षा का नाम देना न तो आसान था और न ही वाजिब था।

स्कूलों से दूरी क्यों?

मुस्कान ने अपने स्तर पर बच्चों के स्कूल नहीं जाने के कारणों को समझा और महसूस किया। इसके लिए हमने बच्चों से बातचीत की जिससे हमें समझ आया कि स्कूल में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा था जो बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करे। बच्चों के ज्ञान, उनकी भाषा व संस्कृति का कक्षा में कोई स्थान नहीं था। बच्चों को कक्षा में चल रही गतिविधियाँ समझ में नहीं आती थीं पर वे डर की वजह से चुप रहते थे। डर की वजह से वे सवाल- जवाब में भी हिस्सा नहीं ले पाते थे।

शिक्षकों का नकारात्मक रवैया, सहपाठियों का उपेक्षित व्यवहार व उपहास इन बच्चों के आत्मसम्मान पर सीधी चोट करता था जिसकी वजह से वे स्कूल आने और स्कूल में रुकने के लिए प्रोत्साहित महसूस नहीं करते थे। इन सबके बावजूद भी वे स्कूल जाने के लिए अपनी तरफ से भरसक कोशिश करते थे किन्तु एक दो साल तक स्कूल जाकर भी बच्चे कुछ सीख नहीं पा रहे थे। ऐसी जगह जो बच्चों को ना तो सीखने के अवसर दे रही हो, ना उन्हें प्रोत्साहित कर रही हो और ना ही उनके आत्मसम्मान की रक्षा कर रही हो, बच्चे वहाँ जाने को लेकर भला कैसे उत्साहित हो सकते थे? स्कूल के अन्दर की विषम परिस्थितियाँ व एक खास पृष्ठभूमि का होने के कारण बच्चों के साथ होने वाला उपेक्षित व्यवहार उनको स्कूल के बाहर धकेल देता है। अभी तक इसके बारे में हमने किताबों और शोध पत्रों में ही पढ़ा था लेकिन हमारे बच्चों के अनुभवों ने भी हमें इसी सच से रूबरू करवाया।

इन परिस्थितियों से जूझते हुए हमारे मन में कई सवाल उभर रहे थे, जैसे :

  1. अगर बच्चे को स्कूल से इतने सारे नकारात्मक अनुभव प्राप्त हो रहे हैं तो क्या हम एक व्यवस्था के तौर पर स्कूल के अस्तित्व को नकार सकते हैं? क्या हम ये मान सकते हैं कि इस व्यवस्था से बाहर रहना ही बच्चे के जीवन के लिए बेहतर है?
  2. जब वंचित तबके के बच्चों का एक बड़ा प्रतिशत स्कूलों में दाखिला लेता है और वहाँ उनके साथ दुर्व्यवहार होता है तो शिक्षा में काम करने वाली संस्थाओं का क्या प्रयास होना चाहिए?
  3. अनौपचारिक शिक्षा बनाम औपचारिक शिक्षा का रास्ता क्या होना चाहिए? क्या स्कूली शिक्षा, 10 महीने, 6 घंटे, साल दर साल विषयवार पढ़ाई का मॉडल ही शिक्षा का एकमात्र मॉडल है?
  4. क्या स्कूल के बाहर रहकर शिक्षा प्राप्त की जा सकती है? क्या यह अमल में लाया जा सकता है और क्या यह काम करेगा?
  5. वंचित समुदायों के बच्चों के लिए किस प्रकार की शिक्षा उपयोगी होगी?

इनमें से कुछ सवालों के जवाब तो हमें मिले और कुछ के जवाब ढूँढने के लिए मुस्कान ने जुलाई 2005 से जीवन शिक्षा पहल स्कूल की शुरुआत की जहाँ हम बच्चों को एक ऐसी शिक्षा देने के लिए प्रतिबद्ध थे जो बच्चों के लिए न केवल रोजगार उन्मुख हो बल्कि उनमें अपने समुदाय के प्रति गर्व और अपने जीवन के संघर्षों को लेकर समानुभूति की भावना रखते हुए उन्हें अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना सिखाए। साथ ही वे समझ के साथ सीखते हुए जीवन में आगे बढ़ सकें।

स्कूल के लिए एक अहम सवाल यह रहा है कि वह एक बराबरी और बेहतर समाज के निर्माण में योगदान दे जिसमें मेहनतकशों को उनका स्थान मिल सके। एक अन्य चुनौती ऐसे पढ़े-लिखे लोगों की खोज रही है जो शिक्षक हों और रचनात्मकता के साथ कक्षा में इन मूल्यों का समावेश कर सकें। पाठ्यपुस्तकों के रूप में हमें ऐसी किताबों की जरूरत थी जो एक विवेचनात्मक नजरिया विकसित करें। इसके लिए एनसीईआरटी और एकलव्य की सामाजिक अध्ययन और नागरिक शास्त्र की पुस्तकों का इस्तमाल किया जाता है। हम चर्चाओं के माध्यम से महिलाओं की बराबरी से सम्बन्धित मुद्दों, विकास के मॉडल, जो गरीब को और गरीब कर रहा है, आदि पर सवाल-जवाब करते हैं। ये चर्चाएँ फिल्म, बस्ती में अध्ययन और वाद-विवाद आदि माध्यमों की सहायता से की जाती हैं।

सीखने-सिखाने के तरीके

यहाँ शिक्षक अपने तरीकों से बच्चों को सिखाने के लिए स्वतन्त्र हैं। वे शैक्षणिक तरीकों में कुछ बदलाव के साथ अभी भी अर्थपूर्ण शिक्षा के अलग अलग मायने और आयाम खोज ही रहे हैं।

सीखने-सिखाने सम्बन्धी कुछ पहलू इस प्रकार हैं :

  1. 1) स्कूल में बच्चों को कक्षावार नहीं बाँटा जाता क्योंकि हर बच्चे की सीखने की अपनी गति होती है, कोई बच्चा किसी विषय को धीरे सीखता है जबकि कोई अन्य बच्चा उसी विषय को तेजी से सीखता है व किसी अन्य विषय को धीमी गति से सीखता है। स्कूल में 20-25 बच्चों का एक मिश्रित समूह होता है जिसमें शिक्षक सीखने की प्रक्रिया को संचालित करते हैं और बच्चे की प्रगति का तय मापदण्डों के आधार पर मूल्यांकन करते जाते हैं। बच्चे आत्मविश्वास के साथ अपने समूहों में सीखते जाते हैं और आगे बढ़ते जाते हैं। औपचारिक स्कूली कक्षाओं में बच्चों से एक निश्चित व सीमित पाठ्यक्रम को एक सीमित अवधि में सीखने की अपेक्षा की जाती है जबकि इन कक्षाओं में बच्चों को अपनी गति से सीखने के अवसर मिल पाते हैं।
  2. शिक्षक बच्चों की नियमितता और शैक्षणिक प्रगति को नियमित रूप से पालकों से साझा करते हैं। पालकों और बच्चों से गहन सम्पर्क किया जाता है। बच्चे के स्कूल नहीं आने पर शिक्षक बस्ती जाकर पालकों से मिलकर बच्चे के स्कूल नहीं आने के कारणों को समझते हैं और बच्चे को पढ़ाई से पुनः जोड़ने का प्रयास करते हैं। कई बार बच्चे एक-दो माह के लम्बे अन्तराल तक स्कूल नहीं आते हैं किन्तु यदि इसके बाद भी वे पढ़ाई शुरू करना चाहें तो हक से अपने स्कूल में आते हैं। स्कूल में हमेशा बच्चों की स्वीकार्यता होती है। जब उन्हें पढ़ना होता है तो वे स्कूल आ जाते हैं।
  3. कई बार बच्चे कचरा बीनते-बीनते स्कूल आ जाते हैं और स्कूल के बाहर अपना थैला रखकर सीखने की प्रक्रिया में शामिल हो जाते हैं। स्कूल में कुछ समय बिताने के बाद वे अपना थैला लेकर निकल जाते हैं। काम से थके बच्चे थोड़ी देर पढ़ाई करने के बाद कोने में सो जाते हैं और अपनी थकान मिटाकर फिर पढ़ाई में शामिल हो जाते हैं। इसी प्रकार जब बच्चों के माता-पिता भी कचरा बीनते हुए स्कूल के करीब से गुजरते हैं तो वे स्कूल आ जाते हैं और बच्चों से मिलकर या कोई कहानी सुनाकर चले जाते हैं। वे इस जगह को अपनी जगह मानते हैं।

लिखित और मौखिक अभिव्यक्ति के अवसर

कक्षा में ऐसे ज्यादा से ज्यादा अवसर होते हैं कि बच्चे अपने अलग-अलग अनुभवों को लिखकर या बोलकर व्यक्त कर सकें। शिक्षक भी बच्चों की बातों व अनुभवों को सुनते हैं जिससे बच्चों को खुलकर अपनी बात रखने का प्रोत्साहन मिलता है। शिक्षक बच्चों द्वारा मौखिक या लिखित में बताए गए अनुभवों को टाइप करके बच्चे की पाठ्य सामग्री के तौर पर उपयोग करते हैं, जिससे बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ता है। बच्चों के परिवेश से जुड़ी बातों और उनके अनुभवों को कक्षा में स्थान देना शिक्षण प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। ऐसा करने से बच्चे कक्षा से जुड़ाव महसूस करने लगते हैं और सीखने की प्रक्रिया में उनकी सक्रिय भागीदारी होने लगती है।

शिक्षण में बच्चों की भाषा को स्थान देना

बच्चों में अपने समुदाय और अपनी पहचान को लेकर गर्व का एहसास हो और वे इससे दूरी न बनाते हुए अपनी वंचितता को राजनीतिक नजरिए से समझ पाएँ इस उद्देश्य की प्राप्ति 7 के प्रयासों में से एक प्रयास बच्चों की भाषाओं को कक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान देना है। इसका अर्थ यह है कि बच्चों को क्षेत्रीय भाषा (हिन्दी) और वैश्विक भाषा (अँग्रेज़ी) सिखाने के लिए उनकी मातृभाषा को आधार के रूप में प्रयोग किया जाए। प्रारम्भिक स्तर पर बच्चों की भाषा व उनके परिवेश के शब्दों का प्रयोग कर लिखित भाषा से पहचान कराई जाती है व इस प्रक्रिया में छोटे-छोटे वाक्यों या छोटी कहानियों का प्रयोग किया जाता है। जैसे— नावा दाई हाटुम ताल मीन तत्तु। यह गोंडी भाषा का वाक्य है जिसका अर्थ है मेरी माँ बाजार से मछली लाई। ऐसा ही एक अन्य वाक्य है— नावा दाई भारी बूता केता जिसका अर्थ है मेरी माँ बहुत काम करती है। शिक्षक इस तरह के वाक्यों को बोर्ड पर लिखकर बच्चों से पढ़वाते हैं और उससे सम्बन्धित चित्र बनवाते हैं। जैसे उपरोक्त वाक्यों के आधार पर दाई (माँ) का चित्र बनाना इत्यादि।

चूँकि बच्चों का अपनी भाषा पर अधिकार होता है व उनके पास अपनी भाषा के शब्दों का असीमित भण्डार होता है इसलिए वे अपनी भाषा की समझ के आधार पर कक्षा में सुने वाक्यों से खुद को जोड़ पाते हैं और यह जुड़ाव उन्हें सीखने के लिए प्रोत्साहित करता है। वे कक्षा में अपनी भाषा में अपने विचार व अनुभवों को प्रस्तुत करते हैं। जब कोई बच्चा किसी विषय को समझने में कठिनाई महसूस करता है तो उसके सहपाठी उसे अपनी भाषा में आसान तरीके से समझा देते हैं। साथ ही बच्चे एक दूसरे की भाषाओं को भी सीखने की कोशिश करते हैं जिससे बच्चों में एक दूसरे की भाषा के प्रति सम्मान बढ़ता है और उन्हें सीखने का एक सकारात्मक माहौल मिल पाता है। बच्चे की भाषा को कक्षा में स्थान मिलने से एक तो बच्चों में अपनी भाषा व संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव आता है, दूसरा उनकी अभिव्यक्ति का कौशल बढ़ता है, सीखने की गति बढ़ती है और सीखने-सिखाने की गतिविधि में सहभागिता का स्तर भी बढ़ जाता है। उनमें यह भाव जागता है कि उनकी भाषा भी महत्त्वपूर्ण है और बाहरी दुनिया में उनकी भाषा का भी एक वजूद है इस प्रकार वे स्कूल से खुद को जोड़ पाते हैं तथा खुद को स्कूल जाने के लिए प्रेरित कर पाते हैं।

कक्षा-कक्ष को बच्चों के जीवन और अनुभवों से जोड़ना

बच्चा अधिकाँश चीजें कक्षा के बाहर अपने जीवन के विभिन्न अनुभवों से सीखता है। अतः बच्चों को कक्षा के बाहर ले जाकर खुद अनुभव करके, परिवेश से अन्तःक्रिया कर सीखने के अवसर उपलब्ध कराना और कक्षा की गतिविधियों को उनके जीवन से जोड़कर समझाने का प्रयास करना सीखने-सिखाने का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इसके अलावा बच्चों के साथ उनकी जिन्दगी को प्रभावित करने वाले विभिन्न मुद्दों पर चर्चाएँ भी की जाती हैं जो बच्चों में अपनी व अपने आस-पास की परिस्थितियों पर प्रश्न करने की क्षमता का विकास करने में सहायक होती हैं। विषयवार पढ़ाई में विभिन्न अवधारणाएँ सिखाने के लिए बच्चों के अनुभवों और समुदाय के अनुभवों को शामिल किया जाता है। बच्चों के अनुभवों में पानी बेचने, कबाड़ बीनने व बेचने, बेल पत्ती बेचने और शादियों में बत्ती लेकर जाने के दौरान हुए अनुभवों को शामिल किया जाता है।

शिक्षण में समुदाय की भागीदारी

समुदाय और स्कूल का आपसी जुड़ाव जरूरी है ताकि पढ़ने-लिखने की दुनिया, बिना पढ़े-लिखे लोगों की दुनिया से दूर न हो जाए। इसके लिए कभी-कभार समुदाय के सदस्य कक्षा में आते हैं और अपनी भाषा में कहानी सुनाते हैं। इन कहानियों में समुदाय की अपनी यात्रा व इतिहास भी शामिल होता है। वे कभी अपने जीवन के किसी समयकाल की घटना को साझा करते हैं तो कभी कोई कौशल। बच्चों की मौलिक अभिव्यक्ति में उनके अभिभावक उनकी मदद करते हैं। बच्चे अपने अभिभावकों से कहानियाँ सुनते हैं और फिर उसको कक्षा में आकर सुनाते हैं। इसके अलावा हम समुदाय के लोगों से बात करके बुजुर्गों द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियों को संकलित करते हैं व उनको बच्चों की भाषा में अनुवाद करके कक्षा में उपयोग करते हैं। बाल मेलों में भी समुदाय के लोगों की भागीदारी होती है।

स्कूल में अपनी संस्कृति का निर्वहन होते देखकर समुदाय के लोग स्कूल से जुड़ पाते हैं और उनमें सहयोग की भावना विकसित होती है। इस तरह पालकों के लिए स्कूल एक अजनबी जगह नहीं रह जाती, उनमें स्कूल के लिए अपनापन विकसित होता है और वे अपने बच्चों 10 को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित होते हैं। वे सीखने की प्रक्रिया से खुद को जोड़कर देख पाते हैं। उनके मन से यह भावना दूर होती है कि वे पढ़ाई-लिखाई के काम में किसी तरह का योगदान नहीं दे सकते। इस तरह उनका सम्मान और स्वाभिमान भी बरकरार रह पाता है और उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। समुदाय का बच्चों व शिक्षकों पर भरोसा बच्चों के सीखने और स्कूल में टिकने में बहुत ही मददगार होता है। अभिभावकों के शिक्षकों से जुड़ाव का एक उदाहरण एक अभिभावक द्वारा मुस्कान शिक्षिका से कहा गया यह कथन है, “हमको तो आप हमारे समाज की ही लगती हैं।”

बच्चों के आपसी रिश्ते

बच्चों के आपसी रिश्ते और दोस्ती (अपने और अपने समुदाय से अलग समुदाय के बच्चों के साथ) बच्चों के सीखने की प्रक्रिया पर असर डालते हैं। कामकाजी बच्चो में पारधी बच्चे ज्यादा कचरा चुनने का काम करते हैं। कई बार अन्य बच्चे इन बच्चों का मजाक बनाने लगते हैं या समूह में उनको शामिल नहीं करते। इससे ये बच्चे हतोत्साहित होते हैं, उनका मनोबल टूटता है और वे समूह में सीखने की प्रक्रिया से बचने लगते हैं। समूह में उनकी स्वीकार्यता के लिए सायास प्रयास करने की जरूरत होती है। इन बच्चों को सीखने की प्रक्रिया में शामिल करने तथा उन्हें कक्षा में खुद को अभिव्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत होती है। बच्चों के साथ लगातार चर्चा और कक्षा में समूह कार्य, अलग अलग बस्तियों के दौरे सभी बच्चों की कक्षा में स्वीकार्यता और भागीदारी को बढाने में बहुत उपयोगी होते हैं। धीरे-धीरे बच्चों में दोस्ती होती है और वे सीखने में एक दूसरे की मदद करने लगते हैं, जिससे कक्षा में सीखने का समावेशी माहौल निर्मित हो पाता है।

शिक्षक और बच्चों के आपसी रिश्ते

सीखने-सिखाने की गतिविधि बेहतर तरीके से संचालित हो सके इसके लिए कक्षा का माहौल भयमुक्त होना बहुत जरूरी है क्योंकि भय की स्थिति में सीखना कठिन होता है। इसके लिए शिक्षक और बच्चों के आपसी रिश्ते का अत्यन्त सौहार्द्रपूर्ण होना बहुत जरूरी है। शिक्षक और बच्चों के बीच उनकी व्यक्तिगत जिन्दगी के बारे में भी बातचीत होती है। बच्चों के साथ सर्किल टाइम (गोल घेरे में बैठकर चर्चा करना) में अलग अलग विषयों पर चर्चाएँ होती है,

जैसे— पिछले कुछ समय में आपको अपने आप में क्या बदलाव महसूस हो रहे हैं, अगर आपको अपनी कक्षा के किसी बच्चे या टीचर को उनके किसी व्यवहार को ठीक करने के लिए कोई सुझाव देना हो तो आप क्या सुझाव देंगे? इसके अलावा बच्चों के परिवार के सदस्यों से बच्चों के रिश्ते पर भी बातचीत होती है, बच्चे अपने विचार और जीवन की परिस्थितियों को शिक्षक के साथ बेझिझक साझा करते हैं। कई बार जब बच्चे समूह में अपनी बात कहने में सहज महसूस नहीं करते तो शिक्षक अकेले में उनसे बात करते हैं। शिक्षक संवेदनशीलता के साथ बच्चों की बात सुनते हैं और उनको मानसिक सम्बल देने का प्रयास करते। इन चर्चाओं से शिक्षक और बच्चों के बीच गहरे रिश्ते बन जाते हैं और बच्चे शिक्षक से खुलकर बात कर पाते हैं। शिक्षक और बच्चों के बीच एक बराबरी का रिश्ता सीखने की प्रक्रिया को बहुत आसान बना देता है।

पालकों को उनके बच्चों की प्रगति से अवगत कराने के लिए शिक्षक प्रति शनिवार बच्चों के घर का दौरा करते हैं और पालकों से मिलकर बच्चों की प्रगति साझा करते हैं।

शिक्षक अपनी समझ और ज्ञान के साथ साथ बच्चे की समझ और ज्ञान को भी कक्षा में स्थान देते हैं। भाषा-शिक्षण के दौरान जब शिक्षकों को बच्चों की भाषा समझ नहीं आती तो वे बच्चों से उनकी भाषा सीखते हैं और हिन्दी के वाक्यों को बच्चों की भाषा में अनुवाद करने की प्रक्रिया में बच्चे ही मुख्य भूमिका में होते हैं। इस प्रकार सीखना एकतरफा न होकर दोतरफा होता है। कभी बच्चे शिक्षक से सीख रहे होते हैं तो कभी शिक्षक बच्चों से।

हाशिए के समुदायों के लिए वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की प्रासंगिकता

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था एक खास वर्ग की जरूरतों के अनुरूप तैयार की गई है। किन्तु हाशिए के समुदायों के ज्यादातर बच्चे आज भी इस व्यवस्था से लगातार छूटते जा रहे हैं। और जो गिने-चुने बच्चे खुद को इस मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था के अनुरूप ढाल पाए हैं, वे ज्यादातर अपनी जड़ों से दूर जा रहे हैं। मुख्यधारा की यह शिक्षा-व्यवस्था इन समुदायों के लिए उपयुक्त नहीं है। स्कूलों में इन बच्चों को जो अनुभव मिलते हैं, जिस शिक्षण सामग्री का प्रयोग कक्षा-कक्ष में किया जाता है, वह इन बच्चों के लिए न तो प्रासंगिक है और न ही अर्थपूर्ण। हमें इन समुदायों की आवश्यताओं और अनुभवों के अनुसार शिक्षा-व्यवस्था में मूलभूत बदलाव करने की आवश्यकता है।

हाशिए के समुदायों के बच्चों की शिक्षा

सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति का खुद का प्रयास जितना अहम होता है उतना ही सीखने की जगह का वातावरण और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया भी इस पर असर डालती है। सीखने की प्रक्रिया जितनी समावेशी होगी, बच्चे सीखने के लिए उतने ही प्रोत्साहित होंगे। हाशिए के समुदायों के बच्चों की शिक्षा बेहतर हो पाए इसके लिए हमें शिक्षण पद्धतियों में बदलाव करने होंगे व पाठ्यक्रम में लचीलापन लाना होगा। स्कूल को एक ऐसी जगह बनाने की जरूरत है जहाँ बच्चे गर्व से अपनी पहचान, अपने काम और अपने अनुभवों को बता पाएँ। बच्चे सीखने की प्रक्रिया में आत्मविश्वास और खुशी के साथ शामिल हो सकें इसके लिए कक्षा को बच्चों के जीवन से जोड़ने और उनके जीवन्त अनुभवों को कक्षा कक्ष में लाने की बहुत जरूरत है। स्कूल की कोशिश होनी चाहिए कि वह एक बराबरी वाले और बेहतर समाज के निर्माण में योगदान दे, हमारा स्कूल इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है।

Share :
Default Image
Savita Sohit
Comments
0 Comments

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

No approved comments yet. Be the first to comment!